भाग-6




   

39. केवल घर, घरवाला खोजें.....


केवल घर, घरवाला खोजें.....
चलने का पहला दिन,
और आज का यह दिन,
और नहीं कुछ
    केवल घर, घरवाला खोजें.....


इसी गरज की मार कि जमादार को
पहली चौकी दर्ज़ कराई
नाम, वल्दियत, उम्र कि जंगल-
है तो शहरीला ही,
    खुली हुई ड्योढ़ी में आंगन,
    आँगन के पसवाड़े चूल्हा,
        चकले-चुड़ले की संगत पर
        कांसी की थाली पर बजती
        परभाती-संझवाती पर तो रीझेंगे ही, पर-
चलने का पहला दिन.....


सिले होठ सी
लगी नाम की
एक-एक तख्ती के पीछे
    केवल जड़े किवाड़े देखें-
चलने का पहला दिन.....


दीवारों ही दीवारों के बीहड़ में भी
रस्ते धोती धूप कहीं तो दिख जाएगी,
सूरज के आगे चंदोवे ताने
चौक-गली में रचते ही होंगे कारीगर, पर-
चलने का पहला दिन.....


धोये है आकाश चिमनियाँ
खड़ा आदमी पंच करे है-
अपना होना,
    लोहे के दड़बों में
    केवल अँधी होड़ सरीखी
    भाग रही सड़कों को देखें-
चलने का पहला दिन.....


गुमसुम के पर्वत के नीचे दब-चिंथ जीती
बतियाने की केवल
एक बळत सुन लेने
    इतने अपनों बीच परायी
    एक अकेली
    दुख-दुख कर सूजी आँखों में
    सारथ हो चलने की
    एक कौंध पा लेने-
चलने का पहला दिन.....


दिनों-दुखों की
जोड़ भूल कर,
दूरी को आँजे आँखों में
एक बड़ी दुनिया हो गए शहर में
    और नहीं कुछ
    अपनापा केवल अपनापा खोजें-


चलने का पहला दिन,
और आज का यह दिन
और नहीं कुछ
    केवल घर, घरवाला खोजें..... ::

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40. जो पहले अपना घर फूंके,


जो पहले अपना घर फूंके,
फिर धर-मजलां चलना चाहे
    उसको जनपथ की मनुहारें !


    जनपथ ऐसा ऊबड़-खाबड़
    बँधे न फुटपाथों की हद में


    छाया भी लेवे तो केवल
    इस नागी, नीली छतरी की


    इसकी सीध न कटे कभी भी
    दोराहे-चौराह तिराहे


    दूरी तो बस इतनी भर ही
    उतर मिले आकाश धरा से


    साखी सूरज टिमटिम रातें
    घट-बढ़-घटते चंदरमाजी


    पग-पग पर बांवळिये-बूझे
    फिर भी तन से, मन से चाले


    उन पाँवों सूखी माटी पर
    रच जाती गीली पगडण्डी
    देखनहारे उसे निहारें
जो पहले अपना घर फूंके,
फिर धर-मजलां चलना चाहे
        उसको जनपथ की मनुहारें !


    इस चौगान चलावो रतना
    मंडती गई राम की गाथा


    एक गवाले के कंठो से
    इस पथ ही गूँजी थी गीता


    जरा, मरण के दुःख देखे तो
    साँस-साँस से करुणा बाँटी


    हिंसा की सुरसा के आगे
    खड़ा हो गया एक दिगम्बर


    पाथर पूजे हरी मिले तो
    पर्वत पूजूँ कहदे कोई


    धर्मग्रन्थ फैंको समन्दर में
    पहले मनु में मनु को देखो


    जे केऊ डाक सुनेना तेरी
    कवि गुरु बोले चलो एकला


    यूँ चल देने वाले ही तो
    पड़ती छाई झाड़-झूड़ते
        एक रंग की राह उघाड़ें


जो पहले अपना घर फूंके
फिर धर-मजलां चलना चाहे
        उसको जनपथ की मनुहारें ! ::

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41. हद, बेहद दोनों लांघे जो !


    हद, बेहद दोनों लांघे जो !


    एकल मैं बज-बजता रहता
    थापे कोई फटी पखावज
    इसका इतना आगल-पीछल
    रीझे माया, सीझे काया


देखा चाहे सूरदास जो
इस हद में भी दिख-दिख जाएं-
मीड़, मुरकियों की पतवाले
निरे मलंगे अद्भुत विस्मय !


    ऐसों से बताये वो ही
    गांठे सांकल बांवळियों की
    इस हदमाते कोरे मैं को
    कीकर के खूँटे बाँधे जो !
हद, बेहद दोनों लांघे जो !


    आगे बेहद का सन्नाटा,
    खुद से बोल सुनो खुद को ही
    यहाँ न सूरज पलकें झपके
    रात न पल भर आँखें मूँदे
धाड़े तन सी हवा फिरे है
जहाँ भरी जाए हैं साँसें,
ऐसे में ही गया एक दिन
यम की ड्योढ़ी पर नचिकेता
    एक बळत के पेटे लेली
    सात तलों की एकल चाबी
    यह चाबी लेले फिर कोई
    ऐसा ही कुद हठ साधे जो !
हद-बेहद दोनों लांघे जो !


    बेहद की कोसा के उठते
    दीखन लागे वह उजियारा
    जिसका आदि न जाने कोई
    इति आगोतर से भी आगे


यह रचना का पहला आँगन
उसका दूजा नाम संसरण
प्राण यही, विज्ञान यही है


    रचे इसी में अनगिन सूरज
    इस अनहद में नाद गूँजते
    नभ-जल-थल चारी सृष्टि के
    हो जाए है वही ममेतर
    हद-बेहद दोनों रागे जो !


हद, बेहद दोनों लाँघे जो ! ::

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42. हदें नहीं होती जनपथ की


हदें नहीं होती जनपथ की
वह तो बस लाँघे ही जाए.....
    एकल सीध चले चौगानों
    चाहे जहाँ ठिकाना रचले


    अपनी मरजी के औघड़ को
    रोका चाहे कोई दम्भी


    चिरता जाए दो फाँकों में
    ज्यों जहाज़, दरिया का पानी


इससे कट कर बने गली ही
कहदे कोई भले राजपथ


इससे दस पग भर ही आगे
दिख जाए है ऊभी पाई ।


आर-पारती दिखे कभी तो
वह भी तो कोरा पिछवाड़ा


    इन दो छोरों बीच बनी है
    दीवारों की भूल भूलैया


    इनसे जुड़-जुड़कर जड़ जाएँ
    भीम पिरालें, हाथी पोलें


    ये गढ़-कोटे ही कहलाए
    अब ‘तिमूरती’ या ‘दस नम्बर’


इनमें सूरज घुसे पूछ कर,
पहरेदार हवा के ऊपर,


खास मुनादी फिरे घूमती
कोसों दूर रहे कोलाहल


ऐसे अजब घरों में जी-जी
आखिर मरें बिलों में जाकर


    जो इतना-सा रहा राजपथ
    उसकी रही यही भर गाथा


    आँखों वाले सूरदास जी
    कुछ तो सीखें इस बीती से


    पोल नहीं तो खिड़क खोल कर
    अरू-भरू होलें जो पल भर
        दिख जाए वह अमर चलारू
        चाले अपना जनपथ साधे !


    हदें नहीं होती जनपथ की
    वह तो बस लाँघे ही लाँघे !


जनपथ जाने तुम वो ही हो
सोच वही, आदत भी वो ही


यह तो अपने अथ जैसा ही
तुम ही चोला बदला करते


लोकराज का जाप-जापते
करो राजपथ पर बटमारी
    इसका नाभिकुंड गहरा है
    सुनो न समझो, गूँजे ही है


    लोकराज कत्तई नहीं वह
    देह धँसे कुर्सी में जाकर


    राज नहीं है काग़ज़ ऊपर
    एक हाथ से चिड़ी बिठाना
राज नहीं आपात काल भी
किसी हरी का नहीं की रतन
विज्ञानी जन सुन लेता है
यन्त्रों तक की कानाफूसी
‘रा’ रचता है कौन कहाँ पर
क्यों छपता है ‘राम’ ईंट पर
    सजवाते रहते आँगन में
    पाँचे बरस चुनावी मेला


    झप-दिपते, झप-दिपते में यह
    खुद को देखे, तुझको देखे


    भरी जेब से देखे जाते
    झोलीवाला पोंछा, पुरजा
कल तक जो केवल चीजें थी
आदमकद हो गई आज वे
चार दशक की पड़ी सामने
संसद में सपनों की कतरन
अब तो ये केवल दरजी हो
अपनी कैंची, सूई, धागा
    लो अब तुम ही देखे जाओ
    कैसे काट, उधेड़ें, साधे ?
हदें नहीं होती जनपथ की
वह तो बस लाँघे ही लाँधे ! ::

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43. ऐसी एक छाँह देखी है.....


    ऐसी एक छाँह देखी है.....
    खुली-खुली सी, धुली-धुली सी,
    शीतल-शीतल, बोल-अबोली,
    घेर, घुमेरों गहरी-गहरी


देख, देखता लगा नापने
मेरा अचरज इसकी सींवें,
वह क्या जाने, वह तो केवल
नीली रूपवती सैरंध्री


    अपनी ओछी डोर समेटे
    भीतर दुबका उधम मचाये
    दबचिंथ दबचिंथ छूटूँ ही तो---


छूट-छूटते उघड़ें आँखें,
सावचेत हो देखन लागूँ-
लगी हुई है ठीक भुवन के
बीचोबीच सुपर्णी टिकुली


    उससे यूँ छँवयाये मुझमें
    छन-छन जाय एक रोशनी
    एक गुनगुना जगरा लहरे


इससे भीतर हलबल-हलबल
बाहर का मैं आकळ-बाकळ
ताप तताये आ-आ निकलें
आखर-आखर के ही छौन
    करते जाएं वे रागोली
    टमका-टमका करें निहारे
    ठिठका-ठिठका पाँव उठाऊँ


दिखें मुझे ऐसे कमतरिये
इक दूजे की परछाई से
इनमें ही अपने होने की
वैसी एक चाह देखी है
    ऐसी एक छाँह देखी है ! ::

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44. ऐसी एक ठौर देखी है !


ऐसी एक ठौर देखी है !
    सड़क नहीं पगडण्डी कोई
    नहीं कहीं से बँटी-बँटी सी


    पाँव-पाँव को चलन बताए
    दूरी से अनुराग सिखाए


चले तो खुद ही पथ बन जाए
लगे बिछी दाके की मलमल


देखन लागो, थके न आँखें
हेमरंग डूँगर ही डूँगर


    लगो पूछने अपने से ही
    यह रचना किसने देखी है !
ऐसी एक ठौर देखी है !


    यहाँ सुबह से पहले उठती
    रमझोळों वाली यह ड्योढ़ी


    धूपाली गायों के संग-संग
    रंभाती दूधाली गायें


यह अपने पर घर रूपाये
खुद सिणगारी ऐसे संवरे
जैसे लडा-लडा बेटी को
मायड़ केश संवारे गूँथे


    भर-भर भरती जाय कुलांचें
    यहीं एक हिरनी देखी है !
ऐसी एक ठौर देखी है !


    थप-लिपती इसकी सौरम को
    हवा उड़ाये ऐसे फिरती


    जैसे हाथ छुड़ा कर भागे
    हँसती हुई खिलंदड़ छोरी


आँक नहीं है, बाँक नहीं है
इसके मन में फाँक नहीं है
सुनो तो लागे सबको ऐसी
बेहदवाली बोल रही है


    बाथों में भूगोल सरीखी
    जैसे विषुवत ही रेखी है !
ऐसी एक ठौर देखी है ! :::

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