tag:blogger.com,1999:blog-78135760056287842432024-02-20T09:34:16.845-08:00आडी तानें सीधी तानेंसरला माहेश्वरीhttp://www.blogger.com/profile/09585198121848413291noreply@blogger.comBlogger7125tag:blogger.com,1999:blog-7813576005628784243.post-23761108033293414052008-08-20T04:41:00.000-07:002008-12-06T20:25:53.139-08:00आडी तानें सीधी तानें<p align="center"><br /><FONT color="#330000" size=6 ><a href="http://bhadanijibooks1.blogspot.com/">गीत संचयन</a></font><br /><p align="right"><br /><strong><FONT color="#660000" size=4 ><br /><a href="http://harishbhadani.blogspot.com/">हरीश भादानी</a></font></strong></p><br /><strong><FONT color="#660000" size=4 ><br /><a href="http://harishbhadani.blogspot.com/" target="new">हरीश भादानी जी का परिचय यहाँ देखें।</a></font></strong><br />प्रकाशक: कवि प्रकाशन, डी-2, मुरलीधर नगर, बीकानेर - 334004 <br><br />संस्करण : 2006 मूल्य: 120/- ISBN 81-86436-41-3<br /><strong><FONT color="#FF0000" size=4 ><br />ई-प्रकाशक:</font></strong><br><br /><strong><FONT color="#660000" size=3 >ई-हिन्दी साहित्य प्रकाशन,<br> एफ.डी.-453, साल्टलेक सिटी,<br>कोलकाता-700106 मो.-09831082737<br> <a href="mailto:ehindisahitya@gmail.com?subject=E-publication">Email: E-Hindi Sahitya Prakashan</a><br></font></strong><br /><strong><FONT color="#FF0000" size=3 >[<a href="http://bookcode.blogspot.com/">BIN Code: INHN 01-330001-033-1</a>]</font></strong><br /><br><strong><FONT color="#FF0000" size=2 ><br />संपर्क :<a href="http://harishbhadani.blogspot.com/">हरीश भादानी, छबीली घाटी, बीकानेर दूरभाष : 2530998</a><br><br />[Script: AADI TANE SEEDHI TANE (Poem) By Harish Bhadani]</font></strong>सरला माहेश्वरीhttp://www.blogger.com/profile/09585198121848413291noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7813576005628784243.post-1774529275493296892008-08-20T03:16:00.000-07:002008-12-06T20:41:09.892-08:00भाग -2<a name="#top"><strong><FONT color="#330000" size=4 >आडी तानें सीधी तानें: अनुक्रम</a></font></strong><br /><table width=100% border=0 cellspacing=0 cellpadding=0><br /> <tr><br /> <td valign=top><br /> <table width=*% border=1 bordercolor="#FF0000" cellspacing=0 cellpadding=4><br /> <tr><td bgcolor=#000000 align=center><br /> <b><font color=#0BF442><br /> <br><br /> आ<br><br /> ड़ी<br><br /> <br><br /> ता<br><br /> नें<br><br /> <br><br /> सी<br><br /> धी<br><br /> <br><br /> ता<br><br /> नें<br> <br /> <br><br /> </font></b><br /> </td></tr><br /> </table><br /> </td><br /> <td width=100% valign="top" aling="left"><br /> <table width=100% border=0 cellspacing=2 cellpadding=4><br /> <tr><td align="left" bgcolor="#FFFFF4"> <br /> <strong><FONT color="#330000" size=2 ><br /><a href="#1">1. ऐसे तट हैं - क्यों इन्करें</a><br><br /><a href="#2">2. एक-एक क्षण जिया गया है</a><br><br /><a href="#3">3. चाहे जिसे पुकार ले तू … अगर अकेली है!</a><br><br /><a href="#4">4. सात सुरों में बोल… मेरे मन की पीर !</a><br><br /><a href="#5">5. रही अछूती</a><br><br /><a href="#6">6. सभी सुख दूर से गुजरें</a><br><br /><a href="#7"> 7. सुधियाँ साथ निभाएँगी</a><br><br /><a href="#8">8. साँसों की अँगुली थामे जो</a><br><br /><a href="#9">9. फेरों बाँधी हुई सुधियों को</a><br><br /><a href="#10">10. तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है</a><br><br /><a href="#11">11. पीर कुछ ऐसी</a><br><br /><a href="#12">12. मैंने नहीं कल ने बुलाया है !</a><br><br /><a href="#13">13. शहर सो गया है!</a><br><br /><a href="#14">14. क्षण-क्षण की छैनी से</a><br><br /><a href="#15">15. थाली भर धूप लिए</a><br><br /><a href="#16">16. उतरी जो चाह अभी</a><br><br /><a href="#17">17. कोलाहल के आँगन</a><br><br /><a href="#18">18. आए जब चौराहे</a><br><br /><a href="#19">19. प्यास सीमाहीन सागर</a><br><br /><a href="#20">20. उम्र सारी</a><br><br /><a href="#21">21. टूटी ग़ज़ल न गा पाएँगे !</a><br><br /><a href="#22">22. कल से क्या</a><br><br /><a href="#23">23. ओ दिशा ! ओ दिशा !</a><br><br /><a href="#24">24. आ, सवाल चुगें, धूपाएं.....आ !</a><br><br /><a href="#25">25. ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए.....</a><br><br /><a href="#26">26. सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े<br /></a><br></font></strong><br /></td><td align="left" bgcolor="#FFFFF4"> <br /> <strong><FONT color="#330000" size=2 ><br /><a href="#27">27. शहरीले जंगल में सांसों</a><br><br /><a href="#28">28. कोई एक हवा ही शायद </a><br><br /><a href="#29">29. चले कहाँ से</a><br><br /><a href="#30">30. पीट रहा मन बन्द किवाड़े !</a><br><br /><a href="#31">31. बता फिर क्या किया जाए</a><br><br /><a href="#32">32. सड़क बीच चलने वालों से</a><br><br /><a href="#33">33. देखे मुझे हँसे सन्नाटा !</a><br><br /><a href="#34">34. इसे मत छेड़ पसर जाएगी</a><br><br /><a href="#35">35. रेत में नहाया है मन !</a><br><br /><a href="#36">36. बिणजारे आकाश ! करले,</a><br><br /><a href="#37">37. आँखों भर की हदवाले आकाश !</a><br><br /><a href="#38">38. सड़कवासी राम !</a><br><br /><a href="#39">39. केवल घर, घरवाला खोजें.....</a><br><br /><a href="#40">40. जो पहले अपना घर फूंके,</a><br><br /><a href="#41">41. हद, बेहद दोनों लांघे जो !</a><br><br /><a href="#42">42. हदें नहीं होती जनपथ की</a><br><br /><a href="#43">43. ऐसी एक छाँह देखी है.....</a><br><br /><a href="#44">44. ऐसी एक ठौर देखी है !</a><br><br /><a href="#45">45. ऐसी एक चलन देखी है !</a><br><br /><a href="#46">46. घर का सच</a><br><br /><a href="#47">47. ना घर तेरा, ना घर मेरा</a><br><br /><a href="#48">48. उड़ती हुई सुपर्णा मुझसे</a><br><br /><a href="#49">49. उड़ना मन मत हार सुपर्णे</a><br><br /><a href="#50">50. यूं जीने का रोज भरम उघड़े</a><br><br /><a href="#51">51. अभी और चलना है.....</a><br><br /></font></strong><br /> </td></tr><br /> </table><br /> </td><br /> </tr><br /> </table><br /><table width=100% border=0><tbody><tr><td width=7% bgcolor="#D22205"> </td><br /><td width=7% bgcolor="#D22205"> </td><td width=7% bgcolor="#D22205"> </td><br /><td width=80% valign="top" align="left" bgcolor="#C8E8EB"><br /><a name="#1"></a><FONT color="#FF0000" size=4 >1. ऐसे तट हैं - क्यों इन्करें</font><br /><p><br /> ऐसे तट हैं --<br /> क्यों इन्कारें<br /> किरणें खीज <br /> खुरच जाती हैं<br />माटी पर दो - चार दरारें<p><br /> ऐसे तट हैं --<br /> क्यों इन्कारें<p><br /> भरी - भरी - सी<br /> सांस - झील पर<br />तन-मन प्यासे पंख पसारें<p><br /> ऐसे तट हैं --<br /> क्यों इन्कारें<br /> परदेशी<br /> बुद बुदे देखने<br />कंकर फैंकें, थकन उतारें<p><br /> ऐसे तट हैं --<br /> क्यों इन्कारें ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#2">2. एक-एक क्षण जिया गया है</a></font><br /><p><br /><br /> एक-एक क्षण जिया गया है<br /> अभी-अभी<br /> डूबे सूरज की<br /> दिनभर की<br /> कुनमुनी झील को<br />सांस-सांस भर पिया गया है<br />एक-एक क्षण जिया गया है<P><br /> अभी चुभे<br /> अंधियारे विष से<br /> सीत्कारती<br /> आवाज़ों को<p><br />रात-रात भर सिया गया है<br />एक-एक क्षण जिया गया है<p><br /> खोल मौन के <br /> बंद किवाड़े<br /> मन के इतने बड़े नगर में<br />कोलाहल भर लिया गया है<br />एक-एक क्षण जिया गया है ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#3"></a>3. चाहे जिसे पुकार ले तू ...अगर अकेली है!</font><br /><p><br />चाहे जिसे पुकार ले तू<br />अगर अकेली है!<p><br />संध्या खड़ी मुंडेर पर<br />पछुवाए स्वर टेर कर<br />अँधियारे को घेर कर<br />ये सब लगे अगर परदेशी<br />आंगन दीप उतार ले तू<br /> अगर अकेली है!<br />चाहे जिसे पुकार ले तू.....<p><br />देख सितारे और गगन,<br />दुखती-दुखती बहे पवन<br />घड़ियाँ सरके बँधे चरण<br />ये भी लगे अगर परदेशी<br />कल का सपन संवार ले तू<br /> अगर अकेली है!<br />चाहे जिसे पुकार ले तू<br />अगर अकेली है!<p><br />टहनी-टहनी बांसुरी<br />आई ऊषा नागरी,<br />खिली कमल की पांखुरी<br />गीत सभी पूरब परिवेशी<br />अपने समझ पुकार ले तू<br /> अगर अकेली है!<br />चाहे जिसे पुकार ले तू<br /> अगर अकेली है! ::<br /><br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#4">4. सात सुरों में बोल, मेरे मन की पीर !</a></font><br /><p><br />सात सुरों में बोल<br /> मेरे मन की पीर !<br />हर पतझर के देश में,<br />जा बासंती वेश में<br />सिणगारी सी डोल,<br /> मेरे मन की पीर !<br />सात सुरों में बोल....<p><br />जा शोलों के राज में,<br />बदरी के अंदाज में,<br />रिमझिम घूंघट खोल,<br /> मेरे मन की पीर !<br />सात सुरों में बोल....<p><br />अपनी-अपनी राह पर<br />मन भाती हर चाह पर<br />विरह-मिलन मत तोल<br /> मेरे मन की पीर !<br />सात सुरों में बोल....<p><br />साँसों की सीमाओं पर<br />मुस्कानों पर, आहों पर<br />जीवन का रस घोल,<br /> मेरे मन की पीर !<br />सात सुरों में बोल....<br /> मेरे मन की पीर ! ::<br /><br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#5"></a><br />5. रही अछूती</font> <br /><p><br />रही अछूती <br />सभी मटकियाँ<br />मन के कुशल कुम्हार की<br /> रही अछूती....<p><br />साधों की रसमस माटी<br />फेरी साँसों के चाक पर,<br />क्वांरा रूप उभार दिया<br />सतरंगी सपने आँककर<p><br /> हाट सजाई<br /> आहट सुनने<br /> कंगनिया झन्कार की<br />रही अछूती<br />सभी मटकियाँ<br />मन के कुशल कुम्हार की<br /> रही अछूती....<p> <br />अलसाई ऊषा छूदे<br />मुस्का मूंगाये छोर से,<br />मेहँदी के संकेत लिखे<br />संध्या पाँखुरिया पोर से<br /> चौराहे रख दी<br /> बंधने को<br /> बाँहों में पनिहार की<br />रही अछूती<br />सभी मटकियाँ<br />मन के कुशल कुम्हार की<br /> रही अछूती....<p><br />हठी चितेरा प्यासा ही<br />बैठा है धुन के गाँव में,<br />भरी उमर की बाजी पर<br />विश्वास लगे हैं दाँव में<p><br /> हार इसी आँगन<br /> पंचोली<br /> साधे राग मल्हार की<br />रही अछूती<br />सभी मटकियाँ<br />मन के कुशल कुम्हार की<br /> रही अछूती... ::<br /><br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#6"></a>6. सभी सुख दूर से गुजरें</font><br /><p><br />सभी सुख दूर से गुजरें<br />गौजरतें ही चले जाएँ<br />मगर पीड़ा उमर भर <br /> साथ चलने को उतारू है<p><br />हमको सुखों की आँख से तो<br />बाँचना आता नहीं<br />हमको सुखों की साख से तो<br />आँकना आता नहीं<br /> अभावों के चढ़ेए साँस की खूँटी<br /> हमको सुखों की लाज से तो<br /> झाँकना आता नहीं<br />निहारे दूर से गुजरें<br />गुजरते ही चले जाएँ<br />मगर अनबन उमर भर<br /> साथ चलने को उतारू है<p><br />मगर पीड़ा अमर भर....<p><br />हमारा धुप में घर<br />छाँह की क्या बात जानें हम,<br />अभी तक तो अकेले ही चले<br />क्या साथ जाने हम<br /> लो पूछलो हमसे घुटन की घाटियाँ कैसी लगी<br /> मगर नंगा रहा आकाश<br /> क्या बरसाता जानें हम<br />बहारें दूर से गुजरें<br />गुजरती ही चली जाएँ<br />मगर पतझर अमर भर<br /> साथ चलने को उतारू है<p><br />मगर पीड़ा अमर भर...<p><br />अटारी को धर से<br />किस तरह आवाज दे दें हम<br />महेंदिया चरण को<br />क्यों दूर का अंदाज दे दें हम,<br /> चले शमशान की देहरी<br /> वही है साथ की संज्ञा<br /> बरफ के एक बुत को<br /> आस्था की आँच क्यों दें हम<br />हमें अपने सभी बिसरें<br />बिसरते ही चले जाएँ<br />मगर सुधियाँ उमर भर<br /> साथ चलने को उतारू है<p><br />सभी शुख दूर से गुजरें<br />गुज़रते ही चले जाएँ<br />मगर पीड़ा उमर भर<br /> साथ चलने को उतारू है। ::<br /><br /><br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#7"></a><br /> 7. सुधियाँ साथ निभाएँगी</font> <br /><p><br />सुधियाँ साथ निभाएँगी<p><br /> थकी अगर<br /> रुकी जाएँगी,<br />दूरी भर-भर आएँगी,<br />मुझको छोड़ न पाएँगी<br /> तुम न भले ही साथ चलो<br />सुधियाँ साथ निभाएँगी<br /> थकी अगर......<p><br /> पीड़ा ओढ़े<br /> धूप हमारे साथ में<br /> और दुःखों के हाथ <br /> हमारे हाथ में<br />आकर्षण दिखलाएँगी<br />मृगतृष्णा बन जाएँगी<br />और सरकती जाएँगी<br /> तुम न भले ही साथ चलो<br />सुधियाँ साथ निभाएँगी<br /> थकी अगर.......<p><br /> मेरा उस<br /> सुर्खी के पार पड़ाव है<br /> राहों में अनजान<br /> चढ़ाव-ढलाव है<br />आहट कर-कर जाएँगी<br />प्रतिध्वनियों- सी आएँगी<br />मुझको सीध बताएँगी<br /> तुम न भले ही साथ चलो<br />सुधियाँ साथ निभाएँगी<br /> थकी अगर......<p><br /> पाप-पुण्य की <br /> परिभाषा से दूर हैं<br /> बंदी सुख की<br /> अभिलाषा से दूर हँ<br />सावन- सी बदराएँगी<br />रिमझिम कर बतियाएँगी<br />फ़ूलों-सी महकाएँगी<br /> तुम न भले साथ चलो<br />सुधियाँ साथ निभाएँगी<br /> थकी अगर <br /> रुक जाएँगी<br />दूरी भर-भर आएँगी<br />मुझको छोड़ न पाएँगी<br />तुम न भले ही साथ चलो<br />सुधियाँ साथ निभाएँगी ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><p><br /><td width=20% bgcolor="#FFFFF4" valign="top" align="top" ><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p></td><br /></tr></tbody></table>सरला माहेश्वरीhttp://www.blogger.com/profile/09585198121848413291noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7813576005628784243.post-89577875822136933982008-08-19T06:45:00.000-07:002008-12-06T20:50:14.355-08:00भाग-3<table width=100% border=0><tbody><tr><td width=7% bgcolor="#D22205"> </td><br /><td width=7% bgcolor="#D22205"> </td><td width=7% bgcolor="#D22205"> </td><br /><td width=80% valign="top" align="left" bgcolor="#C8E8EB"><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#8"></a><br />8. साँसों की अँगुली थामे जो</font> <br /><p><br />साँसों की अँगुली थामे जो<br /> आए क्वांरी साध तो<br /> गीतों से माँग संवार दूँ<br /> मैं रागों से सिंगार दूँ<br />संकेतों की मनुहार दूँ<br />साँसों की अँगुली थामे जो.....<p><br /> गीतों के आखर को सुर्खी<br /> दी है तीखी धूप ने<br /> रागों के स्वर को आकुलता<br /> दी लहरों के रूप ने<br /> तट सा मौनी सपना कोई<br /> चाहे मेरा साथ तो<br /> पीड़ा-सा उसे उभार दूँ<br /> सौ आँसू उस पर वार दूँ<br />आशाओं के उपहार दूँ<br />साँसों की अँगुली थामे जो.....<p><br /> मेरे गीतों को ढलुआनें<br /> दी झुकते आकाश ने<br /> रागों को बढ़ना सिखलाया<br /> वनपाखी की प्यास ने<br /> शूलों से बतियाते कोई<br /> आए मुझ तक पाँव तो<br /> मैं बाँहों को विस्तार दूँ<br /> मैं दो का भेद बिसार दूँ<br />परछाई सा आकार दूँ<br />साँसों की अँगुली थामे जो.....<p><br /> मेरे गीतों को गदराया<br /> सावन की सौगात ने<br /> रागों को गूँजें दे दी हैं<br /> मेघों की बारात ने<br /> रिमझिम बरखा जैसी कोई<br /> बरसे मुझ पर याद तो<br /> मैं मन की जलन उतार दूँ<br /> मैं धुँधले पंथ निखार दूँ<br />मैं सारा सफर गुजार दूँ<br />सांसों की अँगुली थामे जो.....<p><br />मेरे गीतों में सागर की<br /> अनदेखी गहराई है<br />मेरी रागों के सरगम में<br /> मौजों की तरुणाई है<br />सूनेपन से सिहरी-सिहरी<br /> बहके कोई नाव तो<br /> मैं मलयाई पतवार दूँ<br /> मैं हर क्षण फेनिल प्यार दूँ<br />मैं कोई तीर उतार दूँ<br />साँसों की अँगुली थामे जो<br /> आए क्वांरी साध तो<br /> गीतों से माँग संवार दूँ<br /> मैं रागों से सिंगार दूँ<br />संकेतों की मनुहार दूँ<br />साँसों की अँगुली थामे जो ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#9"></a>9. फेरों बाँधी हुई सुधियों को</font><br /><p><br />फेरों बँधी हुई सुधियों को<br /> कैसे कितना<br /> और बिसारें<br /> आती ही जाती<br /> लहरों-सी<br /> दूरी से सलवटें संजोती<br /> तट की फटी दरारों में ये<br /> फेनाया-सा<br /> तन-मन खोती<br />अनचाहा यह मौन निमन्त्रण<br />कौन बहानों से इन्कारें<p><br />फेरों बँधी हुई सुधियों को<br /> कैसे-कितना<br /> और बिसारें<p><br /> रतनारे नयनों को मूँदे<br /> पसर-पसर<br /> जाती रातों में<br /> सिहर-सिहर<br /> टेरें भरती हैं<br /> खोजी सपनों की बातों में<br />साँसों पर कामरिया का रंग<br />किन हाथों से पोंछ उतारें<p><br />फेरों बँधी हुई सुधियों को<br /> कैसे, कितना<br /> और बिसारें<p><br /> परदेशी जैसी<br /> अधसोई<br /> अलसा-अलसा कर अकुलाती<br /> सूरज देख<br /> लाजवंती-सी<br /> उठ जाती<br /> परभाती गाती<br />धूप चदरिया मिली ओढ़ने<br />फिर क्यों तन से इसे उतारें<p><br />फेरों बंधी हुई सुधियों को<br /> कैसे-कितना<br /> और बिसारें ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#10">10. तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है</a></font><br /><p><br /> तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है<br /> क्या हुआ जो<br /> रागिनी को पीर भागई<br /> क्या हुआ जो<br /> चाँदनी को नींद आगई<br />स्याह घाटियों में कोई बात खो गई<br /> क्या हुआ जो<br /> पाँखुरी पे रात रो गई<br /> कि हर घड़ी उदास है<br /> फिर भी एक आस है<br /> कि लाल-लाल भोर की<br /> कि पंछियों के शोर की<br />तेरे-मेरे जागरण की रीत एक है<br />तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है<p><br /> क्या हुआ कली जो<br /> अनमनी-सी जी रही<br /> क्या हुआ जो धूप<br /> सब पराग पी रही<br />अभी खिली अभी झुकी-झुकी-सी ढल रही<br /> क्या हुआ हवा<br /> रुकी-रुकी सी चल रही<br /> कि हर कदम पे आग है<br /> फिर भी एक राग है<br /> कि साँझ के ढले-ढले<br /> कि एक नीड़ के तले<br />तेरी-मेरी मंजिलों की सीध एक है<br />तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है<p><br /> आ, कि तू, मैं<br /> दूरियों को साथ ले चलें<br /> आ, कि तू, मैं<br /> बंधनों को बांधकर चलें<br />क्या हुआ जो पंथ पर धुएँ का आवरण<br /> किन्तु कुछ भी हो<br /> कहीं रुके-थके नहीं लगन<br /> कि हर किसी ढलान पर<br /> कि हर किसी चढ़ान पर<br /> कि एक साँस एक डोर से<br /> कि एक साथ एक छोर से<br />तेरी-मेरी जिन्दगी की प्रीत एक है<br />तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=6 ><br /><a name="#11"></a><br />11. पीर कुछ ऐसी</font> <br /><p><br />पीर कुछ ऐसी<br />बरसी सारी रात.....<br /> भोर कुछ और सुहानी होकर निकली<p><br /> बहुत घुली<br /> घुल-घुल गहराई<br /> बदरी विरहा साँस की<p><br /> उलझ-उलझ<br /> पथ भूली गंगा<br /> सपनों के आकाश की<p><br />रही तड़पती<br />बिजुरी-सी आधी बात<br /> ऊषा कुछ और कहानी होकर निकली<br />पीर कुछ ऐसी<br />बरसी सारी रात<br /> भोर कुछ और.....<p><br /> बहुत झुरी<br /> झुर-झुर कर रोई<br /> मन की आस अभाव में<p><br /> अनजाने<br /> अनगिन तट देखे<br /> आँसू के तेज बहाव में,<p><br />सूनेपन में<br />कुछ अपना लगा प्रभात<br /> धूप कुछ और सलोनी होकर निकली<p><br />पीर कुछ ऐसी<br />बरसी सारी रात<br /> भोर कुछ और.....<p><br /> रात चली<br /> रोती-रोती<br /> इस धरती का सिंगार कर<p><br /> सातों स्वर<br /> ले आई किरणें<br /> कली-कली के द्वार पर<br />सहमी-सहमी<br />कुछ जगी हृदय की साध<br /> साँस कुछ और सयानी होकर निकली<p><br />पीर कुद ऐसी<br />बरसी सारी रात<br /> भोर कुछ और सुहानी होकर निकली ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#12"></a>12. मैंने नहीं कल ने बुलाया है !</font><p><br /> मैंने नहीं कल ने बुलाया है !<br /> ख़ामोशियों की छतें,<br /> आबनूसी किवाड़े घरों पर,<br /> आदमी-आदमी में दीवार है,<br />तुम्हें छैनियाँ लेकर बुलाया है !<br />मैंने नहीं कल ने बुलाया है !<p><br /> सीटियों से<br /> साँस भर कर भागते<br /> बाजार-मीलों दफ़्तरों को<br /> रात के मुर्दे,<br /> देखती ठण्डी पुतलियाँ-<br /> आदमी अजनबी<br /> आदमी के लिए<br />तुम्हें मन खोल कर मिलने बुलाया है !<br />मैंने नहीं कल ने बुलाया है !<p><br /> बल्ब की रोषनी<br /> शेड में बंद है,<br /> सिर्फ़ परछाई उतरती है<br /> बड़े फुटपाथ पर,<br /> ज़िन्दगी की ज़िल्द के<br /> ऐसे सफ़े तो पढ़ लिए<br />तुम्हें अगला सफ़ा पढ़ने बुलाया है !<br />मैंने नहीं कल ने बुलाया है ! ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#13"></a>13. शहर सो गया है!</font><br /><p><br />शहर सो गया है!<p><br /> औज़ार से खेलते<br /> एक संसार के सोच को<br /> आर से पार तक बींधता<br /> एक तीखा सा<br /> बजता हुआ सायरन<br /> बस, गया है अभी<p><br /> और बोले बिना<br /> साख भर छापकर<br /> धूप को सांटता<br /> आकाशिया भी सरका अभी<p><br /> यूं घिसटता चले<br /> जैसे तन बोझ भर रह गया है !<p><br />शहर सो गया है!<p><br /> रची आँख ने दोपहर<br /> साँझ माँडी<br /> खिड़कियों, गली<br /> और माटी लिपे आँगन<p><br /> फ़क़त एक जबड़े से निकला<br /> धुआँ धो गया है !<p><br />शहर सो गया है!<p><br /> बैठा हुआ था बाजार में जो<br /> अभी शोर का संतरी<br /> उगे मौन के जंगलों में<br /> सहमा हुआ खो गया है!<p><br />शहर सो गया है!<p><br /> बुत रोशनी के<br /> सड़क के किनारे<br /> लटका दिये सूलियों पर<br /> अँधेरी अँगुलियों में<br /> स्वर रूँध गया है!<p><br />शहर सो गया है!<p><br /> आग-पानी के नद पार पर<br /> घास का एक बिस्तर<br /> बिछाया है उसने<p><br /> तमोलो-चमोलों चढ़ी<br /> काँच से झाँकती<br /> रोशनी को अँगूठा दिखा कर<p><br /> ओढ़ कर थकन की<br /> फटी-सी रजाई<br /> छाती में घुटने<br /> धँसा, सो गया है !<p><br />शहर सो गया है ! ::<br /><br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=5 ><br /><a name="#14"></a>14. क्षण-क्षण की छैनी से</font><br /><p><br />क्षण-क्षण की छैनी से<br /> काटो तो जानूँ!<p><br /> पसर गया है घेर शहर को<br /> भरमों का संगमूसा<br /> तीखे-तीखे शब्द सम्हाले<br /> जड़ें सुराखो तो जानूँ !<p><br />क्षण-क्षण की छैनी से.....<p><br /> फेंक गया है बरफ छतों से<br /> कोई मूरख मौसम<br /> पहले अपने ही आँगन से<br /> आग उठाओ तो जानूँ!<br />क्षण-क्षण की छैनी से.....<p><br />चौराहे पर प्रश्न चिह्नसी<br /> खड़ी भीड़ को<br /> अर्थ भरी आवाज लगाकर<br /> दिशा दिखाओ तो जानूँ !<p><br />क्षण-क्षण की छैनी से<br /> काटो तो जानूँ ! ::<br /><br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#15">15. थाली भर धूप लिए</a></font><br /><p><br />थाली भर धूप लिए<br /> बैठी अहीरन!<br /> सिरहाने लोरी सुन<br /> सोये पल जाग गए,<br /> अँजुरी भर दूध पिया<br /> बिन बोले भाग गए<p><br />उड़ी-उड़ी फूलों की गंध<br /> बाँधन में मगन!<br />थाली भर धूप लिए.....<p><br /> छाँहों की छोड़ गली<br /> सड़कों-चौराहों को,<br /> खेतों में हिलक रही<br /> बालों की बाँहों को<p><br />गूँज-गूँज डोरी से<br /> बाँधने की लगन!<br />थाली भर धूप लिए.....<p><br /> साथ देख रीझे है<br /> साँझ-सी सहेली,<br /> चाहों से भर दी है<br /> रात की हथेली<p><br />आंज लिए आँखों में<br /> उजले सगुन !<br />थाली भर धूप लिए<br /> बैठी अहीरन ! ::<br /><br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#16">16. उतरी जो चाह अभी</a></font><br /><p><br />उतरी जो चाह अभी<br /> पूरबी दुमहले से.....<p><br /> सोने के पाँव रखे<br /> चौक-छत-मुंडेरों पर<br /> पोरों से दस्तक दी<br /> बंद पड़ी ड्योढ़ी पर<br /> निंदियायी पलकों पर<br /> कुनमुनती गलियों<br /> सड़कों-फुटपाथों पर<br />उठ बैठे जितने सवाल<br /> सब बटोर ले गई मुहल्ले से!<br />उतरी जो चाह अभी<br /> पूरबी दुमहले से.....<p><br /> धरती पर आ उतरे<br /> टीन के आकाश नीचे,<br /> साँस-साँस पिघलाई<br /> आग की कढ़ाही में<br /> लोहे के साँचों पर<br /> आँख टिका, आँख झपक<br /> हिल-हिलते हाथों से<br /> पानी में ठार-ठार<br /> संकेतों-संकेतों-<br />आखर ही आखर <br /> ढल रहे धड़ल्ले से!<br />उतरी जो चाह अभी<br /> पूरबी दुमहले से.....<p><br /> हीरों से हरियाये खेतों में<br /> हुम-हुम कर हिलके हैं<br /> हाथ-हाथ हाँसिये<br /> हो-हो की आवाजें<br /> टिच-टिचती टिचकोरी<br /> हेर रही बैलों को<br /> ऐसा यह दूर दरसन<br /> देख-देख, रीझ-रीझ<br /> ठहरी है दोपहरी मेड़ों पर<br /> वे भी तो थम-थमते<br /> धूप से धो हाथ-मुँह<br /> एक पंगत हो जुड़े हैं<br />घर से ढाणी<br /> घर-ढाणी के थल्ले से!<br />उतरी जो चाह अभी<br /> पूरबी दुमहले से.....<p><br /> खाली हुई पेट की<br /> कुई के आगे आ गया है<br /> प्याज-छाछ-सोगरा<br /> मुट्ठी में मसोस कर<br /> मसक लिया है थाली में,<br /> एक बखत पांण दे<br /> उठ लिए हैं कमधजी<br /> बे उधर कि ये इधर<br />घास-घास, फूस-फूस<br /> फटक हैं पल्ले से<br />उतरी जो चाह अभी<br /> पूरबी दुमहले से! ::<br /><p><br /><td width=20% bgcolor="#FFFFF4" valign="top" align="top" ><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p></td><br /></tr></tbody></table>सरला माहेश्वरीhttp://www.blogger.com/profile/09585198121848413291noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7813576005628784243.post-71266980477127858962008-08-19T05:16:00.000-07:002008-12-06T20:59:15.549-08:00भाग-4<table width=100% border=0><tbody><tr><td width=7% bgcolor="#D22205"> </td><br /><td width=7% bgcolor="#D22205"> </td><td width=7% bgcolor="#D22205"> </td><br /><td width=80% valign="top" align="left" bgcolor="#C8E8EB"><FONT color="#FF0000" size=5 ><br /><a name="#17"></a><br />17. कोलाहल के आँगन</font> <br /><p><br />कोलाहल के आँगन<br />सन्नाटा रख गई हवा<br /> दिन ढलते-ढलते.....<br /> कोलाहल के आँगन!<p><br /> दो छते कंगूरे पर<br /> दूध का कटोरा था<br />धुँधवाती चिमनी में<br />उलटा गई हवा<br /> दिन ढलते-ढलते.....<br /> कोलाहल के आँगन!<p><br /> घर लौटे लोहे से बतियाते<br /> प्रश्नों के कारीगर<br />आतुरती ड्योढ़ी पर<br />सांकल जड़ गई हवा<br /> दिन ढलते-ढलते.....<br /> कोलाहल के आँगन!<p><br /> कुंदनिया दुनिया से<br /> झीलती हक़ीक़त की<br />बड़ी-बड़ी आँखों को<br />अँसुवा गई हवा<br /> दिन ढलते-ढलते.....<br /> कोलाहल के आँगन!<p><br /> हरफ़ सब रसोई में<br /> भीड़ किए ताप रहे,<br />क्षण के क्षण चूल्हे में<br />अगिया गई हवा<br /> दिन ढलते-ढलते<br /> कोलाहल के आँगन<p><br />सन्नाटा रख गई हवा<br /> दिन ढलते-ढलते.....<br /> कोलाहल के आँगन! ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#18"></a>18. आए जब चौराहे</font><p><br />आए जब चौराहे<br /> आग़ाज़ कहाए हैं<br />लम्हात चले जितने<br /> परवाज़ कहाए हैं<p><br /> हद तोड़ अँधेरे जब<br /> आँखों तक धँस आए,<br />जीने के इरादों ने<br /> जंगल सुलगाए हैं<br />आए जब चौराहे.....<p><br /> जिनको दी अगुवाई<br /> चढ़ गए कलेजे पर,<br />लोगों ने गरेबां से<br /> वे लोग उठाए हैं<br />आए जब चौराहे.....<p><br /> बंदूक ने बंद किया<br /> जब-जब भी जुबानों को<br />जज्बात ने हरफ़ों के<br /> सरबाज उठाए हैं<br />आए जब चौराहे.....<p><br /> गुम्बद की खिड़की से<br /> आदमी नहीं दिखता,<br />पाताल उलीचे हैं<br /> ये शहर बनाए हैं<br />आए जब चौराहे.....<p><br /> जब राज चला केवल<br /> कुछ खास घरानों का,<br />काग़ज़ के इशारे पर<br /> दरबार ढहाए हैं<br />आए जब चौराहे.....<p><br /> मेहनत खा, सपने खा<br /> चिमनियाँ धुआँ थूकें<br />तन पर बीमारी के<br /> पैबंद लगाए हैं<br />आए जब चौराहे.....<p><br />दानिशमंदो बोलो<br /> ये दौर अभी कितना<br />अपने ही धीरज से<br /> हर साँस अघाए हैं<br />आए जब चौराहे.....<p><br /> न हरीश करे लेकिन<br /> अब ये तो करेंगे ही<br />झुलसे हुए लोगों ने<br /> अंदाज़ दिखाए हैं,P.<br />आए जब चौराहे, आग़ाज़ कहाए हैं<br />लम्हात चले जितने, परवाज़ कहाए हैं ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#19"></a>19. प्यास सीमाहीन सागर</font><br /><p><br />प्यास सीमाहीन सागर<br /> अंजुरी भरले कोई!<p><br /> लहरें टकरती पीर की<br /> मौनी किनारों से,<br /> झुलसी हुई ये लौटती<br /> तपते उतारों से<p><br />शेष सुधियाँ फेन जैसी<br /> आँगने रखले कोई!<br />प्यास सीमाहीन सागर.....<p><br /> दूरियों से दूरियों तक<br /> सिर्फ़ टीसें गूँजती,<br /> और बहकी-सी सिहरनें<br /> द्वार-ड्योढ़ी घूमती<p><br />सपन तारों से अनींदे<br /> आँख में भरले कोई!<br />प्यास सीमाहीन सागर.....<p><br /> आस जागेगी अलस कर<br /> रात जो करवट भरे,<br /> साँस पीलेगी स्वरों को<br /> भोर जो आहट करे<p><br />साध पूरब की किरणसी<br /> बाँह में भरले कोई!<p><br />प्यास सीमाहीन सागर<br /> अंजुरी भरले कोई! ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#20"></a>20. उम्र सारी</font><br /><p><br />उम्र सारी इस बयाबां में गुजारी यारो!<br />सर्द गुमसुम ही रहा<br />हर साँस पे तारी यारो !<p><br /> कोई दुनिया न बने<br /> रंगे-लहू के खयाल,<br /> गोया रेत ही पर<br />तस्वीर उतारी यारो!<br />उम्र सारी.....<p><br /> देखा ही किए झील<br /> वो समंदर, वो पहाड़,<br /> अपनी हर आँख<br />सियाही ने बुहारी यारो !<br />उम्र सारी.....<p><br /> जहाँ सड़क, गली<br /> आँगन जैसे बाज़ार चले,<br /> न चले, अपनी न चले<br />यहां असआरी यारो!<br />उम्र सारी.....<p><br /> रहबरों तक गई<br /> वो तलाश रहे साथ, सफ़र<br /> उसकी आबरू<br />हर बार उतारी यारो !<br />उम्र सारी.....<p><br /> हाँ, निढ़ाल तो हैं<br /> पर कोई चलना तो कहे,<br /> मन के पाँवों की<br />बाकी अभी बारी यारो !<br />उम्र सारी.....<p><br /> उठके डूबे है कहीं<br /> अपनी आवाज़ यहाँ<br /> किसी आग़ाज़ से ही<br />सिलसिला जारी यारो !<br />उम्र सारी.....<p><br /> अब जो बदलो तो कहीं<br /> हो, गुनहग़ार हरीश<br /> वही रंगत, वे ही दौर,<br />वही यारी यारो !<p><br />उम्र सारी इस बयाबां में गुजारी यारो !<br />सर्द गुम-सुम ही रहा<br />हर साँस पै तारी यारो ! ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#21">21. टूटी ग़ज़ल न गा पाएँगे !</a></font><br /><p><br /> टूटी ग़ज़ल न गा पाएँगे !<p><br /> साँसों का इतना सा माने<br /> स्वरों-स्वरों<br /> मौसम-दर-मौसम<br /> हरफ़-हरफ़ गुंजन-दर-गुंजन<br /> हवा हदें ही बाँध गई है<br />सन्नाटा न स्वरा पाएंगे !<br />टूटी ग़ज़ल न गा पाएंगे !<p><br /> आँखों का इतना-सा माने<br /> खुले-खुले<br /> चौखट-दर-चौखट<br /> सुर्ख-सुर्ख बस्ती-दर-बस्ती<br /> आसमान उल्टा उतरा है<br />अँधियारा न आँज पाएँगे !<br />टूटी ग़ज़ल न गा पाएँगे !<p><br /> चलने का इतना-सा माने<br /> बाँह-बाँह<br /> घाटी-दर-घाटी<br /> पाँव-पाँव दूरी-दर-दूरी<br /> काट गए काफ़िले रास्ता<br />यह ठहराव न जी पाएँगे !<br />टूटी ग़ज़ल न गा पाएँगे ! ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#22"></a><br />22. कल से क्या</font> <br /><p><br />कल से क्या<br />आज से गवाही ले, मितवा !<p><br /> घाटी में आँगन है<br /> आँगन में बाँहें<br /> बाँहती दहरिया की<br />कल से क्या<br />आज से गवाही ले, मितवा !<p><br /> आँखों में झीले हैं<br /> झीलों में रंग<br /> रंगवती हलचल की<br />कल से क्या<br />आज से गवाही ले, मितवा !<br /> माटी में सांसें हैं<br /> सांसों के होठ<br /> बोलती पखावज की<br />कल से क्या<br />आज से गवाही ले, मितवा !<p><br /> दूरी पर चौराहे<br /> चौराहे खुभते हैं<br /> चरवाहे पाँवों की<br />कल से क्या<br />आज से गवाही ले, मितवा<p><br /> रात एक पाटी है<br /> पहर-पहर लिखता है<br /> उज़लती हक़ीक़त बड़ी<br />कल से क्या<br />आज से गवाही ले, मितवा !<p><br />घाटी में आँगन है,<br />आँगन में बांहें<br />बाँहती दहरिया की<br /> कल से क्या<br /> आज से गवाही ले, मितवा ! ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#23"></a>23. ओ दिशा ! ओ दिशा !</font><p><br /> ओ दिशा ! ओ दिशा !<br /> कब से खड़े <br /> रास्ते घेर घर<br /> संशयों के अँधेरे<br /> सहमी हुई साँझ ड्योढ़ी खड़ी<br /> ठहरे हुए ये चरण<br /> सिलसिले हो उठें<br /> संकल्प की हथेली पर<br /> दृष्टि का सूर्य रखले<br />ओ, दिशा ! ओ, दिशा !<p><br /> मौन के साँप<br /> कुण्डली लगाए हुए<br />हर एक चेहरा <br /> हर दूसरे से अलग जी रहा<br />साँस बजती नहीं,<br />आँख से आँख मिलती नहीं<br />सारे शहर में<br />कहीं कुछ धड़कता नहीं,<br /> चोंच भर-भर बुनें,<br /> षोर का आसमां<br /> स्वरों के पखेरू उड़ा<br />ओ, दिशा ! ओ, दिशा ! ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#24"></a>24. आ, सवाल चुगें, धूपाएं.....आ !</font><br /><p><br />आ, सवाल चुगें, धूपाएं.....आ !<p><br /> दीवारों पर आ बैठी<br /> यादों की सीलन<br />नीचे से ऊपर तक<br /> रंग खरोंचे<br /> कुतर न जाए<br />माटी का मरमरी कलेजा<br />आ, सवाल चुगें, धूपाएं.....आ !<p><br /> आँख लगाए है<br /> पिछवाड़े पर सन्नाटा<br />जोड़-जोड़ पर नेज़े खोभे<br /> सेंधन लग जाए<br /> हरफ़ों के घर में<br />आ, फ़सीलों से गूंजें.....पहराएं !<br />आ, सवाल चुगें, धूपाएं.....आ !<p><br /> पसर गया है<br /> बीच सड़क भूखा चौराहा<br /> उझक-उझक मुँह खोले<br /> भरम निपोरे<p><br /> निगल न जाए<br /> यह तलाश की कामधेनु को<br />आ, वामन होलें, चल जाएं.....आ !<br />आ, सवाल चुगें, अगियाएं.....आ ! ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#25"></a>25. ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए.....</font><br /><p><br /> ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए.....<br /> कुनमुनते तांबे की सुइयाँ<br /> खुभ-खुभ आंख उघाड़े<br /> रात ठरी मटकी उलटाकर<br /> ठठरी देह पखारे<br /> बिना नाप के सिये तक़ाज़े<br /> सारा घर पहनाए<p><br />ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए.....<p><br /> साँसों की पंखी झलवाए<br /> रूठी हुई अंगीठी,<br /> मनवा पिघल झरे आटे में<br /> पतली करदे पीठी<br /> सिसकी-सीटी भरे टिफिन में <br /> बैरागी सी जाए<br />ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए.....<p><br /> पहिये, पाँव उठाए सड़कें<br /> होड़ लगाती भागें<br /> ठण्डे दो मालों चढ़ जाने<br /> रखे नसैनी आगे,<br /> दो-राहों-चौराहों मिलना<br /> टकरा कर अलगाए<p><br />ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए.....<p><br /> सूरज रख जाए पिंजरे में<br /> जीवट के कारीगर,<br /> रचा, घड़ा सब बाँध धूप में<br /> ले जाए बाजीगर,<br /> तन के ठेले पर राशन की<br /> थकन उठा कर लाए<p><br />ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए..... ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#26">26. सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े</a></font><br /><p><br />सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े<br /> बजती हुई सुई !<p><br /> सीलन और धुएँ के खेतों<br /> दिन भर रुई चुनें<br /> सूजी हुई आँख के सपने<br /> रातों सूत बुनें<br /> आँगन के उठने से पहले<br /> रचदे एक कमीज रसोई,<p><br />एक तलाश पहन कर भागे<br /> किरणें छुई-मुई.....<br />सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े<br /> बजती हुई सुई !<p><br /> धरती भर कर<br /> चढ़े तगारी<br /> बाँस-बाँस आकाश,<br /> फरनस को अगियाया रखती<br /> साँसें दे-दे घास<p><br />सूरज की साखी में बंटते<br />अंगुली जितने आज और कल,<p><br />बोले कोई उम्र अगर तो<br /> तीबे नई सुई<br /> बजती हुई सुई<p><br />सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े<br /> बजती हुई सुई ! ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#27">27. शहरीले जंगल में सांसों</a></font><br /><p><br />शहरीले जंगल में सांसें<br />हलचल रचती जाएँ.....साँसें !<p><br /> कफ़न ओस का<br /> फाड़ बीच से<br /> दरके हुए क्षितिज उड़ जाएँ<br /> छलकी सोनलिया कठरी से<br /> आँखों के घड़िये भर लाएँ<br />चेहरों पर ठर गई रात की<br />राख पोंछती जाएँ, सांसें.....<br />शहरीले जंगल में सांसें.....<p><br /> पथरीले बरगद के साये<br /> घास-बाँस के आकाशों पर,<br /> घात लगाये<br /> छुपा अहेरी<br /> लीलटांस से विश्वासों पर<br />पगडण्डी पर पहिये कसकर<br />सड़कों बिछती जाएँ, सांसें.....<br />शहरीले जंगल में सांसें.....<p><br /> सर पर बाँध<br /> धुएँ की टोपी<br /> फरनस में कोयले हँसाएँ<br /> टीन-काँच से तपी धूप में<br /> भीगी-भीगी देह छाँवाएँ<br />पानी, आगुन, आगुन, पानी<br />तन-तन बहती जाएँ सांसें.....<br />शहरीले जंगल में सांसें.....<p><br /> लोहे के बावळिये काँटे<br /> जितने बिखरें<br /> रोज़ बुहारें,<br /> मन में बहुरूपी बीहड़ के<br /> एक-एक कर अक्स उतारें<br />खिड़की बैठे कम्प्यूटर पर<br />तलपट लिखती जाएँ सांसें.....<br />शहरीले जंगल में सांसें.....<p><br /> हाथ झूलती<br /> हुई रसोई<br /> बाजारों के फेरे देती<br /> भावों की बिणजारिन तकड़ी<br /> जेबें ले पुड़ियाँ दे देती<br />सुबह-शाम खाली बांबी में<br />जीवट भरती जाएँ, सांसें<br />शहरीले जंगल में सांसें<br />हलचल रचती जाएँ सांसें..... ::<br /><p><br /><td width=20% bgcolor="#FFFFF4" valign="top" align="top" ><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p></td><br /></tr></tbody></table>सरला माहेश्वरीhttp://www.blogger.com/profile/09585198121848413291noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7813576005628784243.post-66003207160882230292008-08-19T02:31:00.000-07:002008-12-06T21:11:18.519-08:00भाग-5<table width=100% border=0><tbody><tr><td width=7% bgcolor="#D22205"> </td><br /><td width=7% bgcolor="#D22205"> </td><td width=7% bgcolor="#D22205"> </td><br /><td width=80% valign="top" align="left" bgcolor="#C8E8EB"><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#28"></a><br />28. कोई एक हवा ही शायद</font> <br /><p><br />कोई एक हवा ही शायद<br /> इस चौराहे रोक गई है<p><br /> फिर-फिर फिरे गई हैं आंखें<br /> रेत बिछी सी<br /> पलकों से बूंदें अंवेर कर<br /> रखी रची सी,<br />हिलक-हिलक कर रहीं खोजतीं<br /> तट पर जैसे एक समंदर<br />बरसों से प्यासी थी शायद<br /> धूप चाटती सोख गई हैं<p><br />कोई एक हवा ही शायद<br /> इस चौराहे रोक गई है<p><br /> हुए पखावज रहे बुलाते<br /> गूंगे जंगल<br /> बज-बजती साँस हुई है<br /> राग बिलावल<p><br />भूल गया झलमलता सपना<br /> झूले जैसे एक रोशनी<br />बरसों से बोझिल थी शायद<br /> रात अँधेरा झोंक गई है<p><br />कोई एक हवा ही शायद<br /> इस चौराहे रोक गई है!<p><br /> थप-थप पाँवों ने थापी है<br /> सड़क दूब सी<br /> रंगती गई पुरुरवा दूर को<br /> दिशा उर्वशी<br />माप गई आकाश एषणा<br /> जैसे एक सफेद कबूतर<br />होड़ बाज़ ही होकर शायद<br /> डैने खोल दबोच गई है !<p><br />कोई एक हवा ही शायद<br /> इस चौराहे रोक गई है ! ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#29"></a>29. चले कहाँ से</font><p><br />चले कहाँ से<br />गए कहाँ तक<br /> याद नहीं है.....<p><br /> आ बैठा छत ले सारंगी<br /> बज-बजता मन-सुगना बोला<br /> उतरी दिशा<br /> लिए आँगन में<br /> सिया हुआ किरणों का चोला<p><br />पहन लिया था<br />या पहनाया<br /> याद नहीं है.....<br />चले कहाँ से.....<p><br /> झुल-झुल सीढ़ी ने हाथों से<br /> पाँवों नीचे सड़क बिछाई,<br /> दूध झरी<br /> बाछों ने खिल-खिल<br /> थामी बाँह, करी अगुआई<p><br />रेत रची कब<br />हुई बिवाई<br /> याद नहीं है.....<br />चले कहाँ से.....<p><br /> रासें खींच रोशनी संवटी,<br /> पीठ दिये रथ, भागे घोड़े<br /> उग आए<br /> आँखों के आगे<br /> मटियल, स्याह, धुँओं के धोरे,<p><br />सूरज लाया<br />या खुद पहुँचे<br /> याद नहीं है.....<br />चले कहाँ से.....<p><br /> रिस-रिस, झर-झर<br /> ठर-ठर गुम-सुम<br /> झील हो गया है घाटी में<br /> हलचलती बस्ती में केवल<br /> एक अकेलापन पांती में<p><br />दिया गया या<br />लिया शोर से<br /> याद नहीं है.....<p><br />चले कहाँ से, गए कहाँ तक<br />याद नहीं है ! ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#30"></a>30. पीट रहा मन बन्द किवाड़े !</font><br /><p><br />पीट रहा मन बन्द किवाड़े !<p><br /> देखी ही होगी आँखों ने<br /> यहीं-यहीं ड्योढ़ी खुल-खुलती<br /> प्रश्नातुर ठहरी आहट से<br /> बतियायी होगी सुगबुगती<br /> बिछा, बिछाये होंगे आखर<br />फिर क्यों झरझर झरे स्वरों ने<br /> सन्नाटों के भरम उघाड़े ?<br />पीट रहा मन बन्द किवाड़े !<p><br /> समझ लिया होगा पाँखों ने<br /> आसमान ही इस आँगन को<br /> बरस दिया होगा आँखों ने<br /> बरसों कड़वाये सावन को,<br /> छींट लिया होगा दुखता कुछ<br />फिर क्या हाथों से झिटका कर<br /> रंग हुआ दाग़ीना झाड़े ?<br />पीट रहा मन बन्द किवाड़े !<p><br /> प्यास जनम की बोली होगी<br /> आँचल है तो फिर दुधवाये<br /> ठुनकी बैठ गई होगी ज़िद<br /> अँगुली है तो थमा चलाये<br /> चौक तलाश उतरली होगी,<br />फिर क्यों अपनी-सी संज्ञा ने<br /> सर्वनाम हो जड़े किवाड़े ?<br />पीट रहा मन बंद किवाड़े ! ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#31"></a>31. बता फिर क्या किया जाए</font><br /><p><br /> बता फिर क्या किया जाए<p><br /> सड़क फुटपाथ हो जाए<br /> गली की बांह मिल जाए<br />सफ़र को क्या कहा जाए<br /> बता फिर क्या किया जाए<p><br /> नज़र दूरी बचा जाए<br /> लिखावट को मिटा जाए<br />क्या इरादे को कहा जाए<br /> बता फिर क्या किया जाए<p><br /> स्वरों से छन्द अलगाएँ<br /> गले में मौन भर जाएँ<br />ग़ज़ल को क्या कहा जाए<br /> बता फिर क्या किया जाए<p><br /> उजाला स्याह हो जाए<br /> समंदर बर्फ हो जाए<br />कहां क्या-क्या बदल जाए<br /> बता फिर क्या किया जाए<p><br /> आदमी चेहरे पहन आए<br /> लहू का रंग उतर जाए<br />किसे क्या-क्या कहा जाए<br /> बता फिर क्या किया जाए ::<br /><br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#32">32. सड़क बीच चलने वालों से</a></font><br /><p><br />सड़क बीच चलने वालों से<br /> क्या पूछूँ.....क्या पूछूँ ?<p><br /> किस तरह उठा करती है<br /> सुबह चिमनियों से<br /> ड्योढ़ी-ड्योढ़ी<br /> किस तरह दस्तकें देते हैं<br /> सायरन.....सीटियां.....क्या पूछूँ ?<br />सड़क बीच चलनेवालों से<br /> क्या पूछूँ.....क्या पूछूँ ?<p><br /> कब कोलतार को<br /> आँच लगी ?<br /> किस-किसने जी<br /> किस-किस तरह सियाही ?<br /> पाँवों की तस्वीर बनी<br /> कितनी दूरी के<br /> बड़े कैनवास पर.....क्या पूछूँ ?<br />सड़क बीच चलने वालों से<br /> क्या पूछूँ.....क्या पूछूँ ?<p><br /> कैसे गुजरे हैं दिन<br /> टीनशेड की दुनिया के ?<br /> किस तरह भागती भीड़<br /> हाँफती फाटक से ?<br /> किस तरह जला चूल्हा ?<br /> क्या खाया-पिया ?<br /> किस तरह उतारी रात<br /> घास-फूस की छत पर.....क्या पूछूँ ?<br /> सड़क बीच चलने वालों से<br /> क्या पूछूँ.....क्या पूछूँ ?<p><br />पूछूँ उनसे<br />चलते-चलते जो<br />ठहर गए दोराहों पर<p><br /> पूछूँ उनसे<br /> किस लिए चले वे<br /> बीच छोड़, फुटपाथों पर<br />उस-उस दूरी के<br />आस-पास ही<br />अगुवाने को<br />खड़े हुए थे गलियारे<p><br /> उनकी वामनिया मनुहारों पर<br /> किस तरह<br /> कतारें टूट गई.....क्या पूछूँ<p><br />सड़क बीच चलने वालों से<br /> क्या पूछूँ.....क्या पूछूँ ? ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#33"></a><br />33. देखे मुझे हँसे सन्नाटा !</font> <br /><p><br />देखे मुझे हँसे सन्नाटा !<p><br />निरे अकेले बैठे-बैठे<br />बहुत दूर की<br />कई-कई आवाज़ें लगें मुझे<br />अपने तक आतीं,<br />अगुवाने को उठूँ कि देखूँ<br />सड़क ले गई उन्हें<br />झोंक कर मुझ पर सिर्फ गुबार<br /> हँसे सन्नाटा !<br /> देखे मुझे हँसे सन्नाटा !<p><br />रोज ऊँघते गूँग लगे है फिर भी<br />मुझसे केवल मुझसे ही बतियाने<br />कोलाहल आँगन में आ बिखरा है,<br />हँसती आँखें फेर बुहारूँ,<br />चुग-चुग जोडूँ आखर-आखर<br />बने न कोई दो हरफों का बोल<br /> हँसे सन्नाटा !<br /> देखे मुझे हँसे सन्नाटा !<p><br />कई-कई बार<br />लगे सपने में<br />मेरे ही सिरहाने बैठा<br />लोरी झलझलता कोई सम्बोधन<br />दुलरा-दुलरा मुझे जगाए<br />इस चूनर, आँचल से हुमकूँ<br />फैंकू नींद उघाड़<br /> दिखे सन्नाटा !<br /> देखे मुझे हँसे सन्नाटा ! ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#34"></a>34. इसे मत छेड़ पसर जाएगी</font><p><br />इसे मत छेड़ पसर जाएगी<br />रेत है रेत बिफर जाएगी<p><br />कुछ नहीं प्यास का समंदर है,<br />जिन्दगी पाँव-पाँव जाएगी<p><br />धूप उफने है इस कलेजे पर<br />हाथ मत डाल ये जलाएगी<p><br />इसने निगले हैं कई लस्कर<br />ये कई और निगल जाएगी<p><br />न छलावे दिखा तू पानी के<br />जमीं-आकाश तोड़ लाएगी,<p><br />उठी गाँवों से ये ख़म खाकर<br />एक आँधी सी शहर जाएगी<p><br />आँख की किरकिरी नहीं है ये<br />झाँकलो झील नजर आएगी<p><br />सुबह बीजी है लड़के मौसम से<br />सींच कर साँस दिन उगाएगी<p><br />काँच अब क्या हरीश मांजे है<br />रोशनी रेत में नहाएगी<p><br />इसे मत छेड़ पसर जाएगी<br />रेत है रेत बिफर जाएगी ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=6 ><br /><a name="#35"></a>35. रेत में नहाया है मन !</font><br /><p><FONT color="#660000" size=4 ><br />रेत में नहाया है मन !<br /> आग ऊपर से, आँच नीचे से<br /> वो धुँआए कभी, झलमलाती जगे<br /> वो पिघलती रहे, बुदबुदाती बहे<br /> इन तटों पर कभी धार के बीच में<br />डूब-डूब तिर आया है मन<br />रेत में नहाया है मन !<p><br /> घास सपनों सी, बेल अपनों सी<br /> साँस के सूत में सात सुर गूँथ कर <br /> भैरवी में कभी, साध केदारा<br /> गूंगी घाटी में, सूने धारों पर<br />एक आसन बिछाया है मन<br />रेत में नहाया है मन !<p><br /> आँधियाँ काँख में, आसमाँ आँख में<br /> धूप की पगरखी, ताँबई, अंगरखी<br /> होठ आखर रचे, शोर जैसे मचे<br /> देख हिरनी लजी साथ चलने सजी<br />इस दूर तक निभाया है मन<br />रेत में नहाया है मन ! ::</font><br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#36"></a>36. बिणजारे आकाश ! करले,</font><br /><p><br />बिणजारे आकाश ! करले,<br />जितनी भी कर सके कमाई !<p><br /> सोने के अवसर के ऊपर<br /> मिला तुझे अनमोल महूरत<p><br />बिना तले की बांबी वाला<br />साथ हुआ है प्यासा मौसम<p><br /> पहन होकड़े लूट लुटेरे<br /> यह मेरा अनखूट ख़ज़ाना<p><br />पड़ा दिगम्बर सात समंदों<br />कितनी ही तन्वंगी नदियाँ<p><br /> शिखरों-घाटी फाँद उतरते<br /> कल-कल करते झरनों का जल<p><br />चूके मत चौहान कि घर में<br />घड़े-मटकियाँ जितनी भी हैं<p><br /> अपनी सत-हथिया किरणों को<br /> तप-तप तपते थमा तामड़े<p><br />कहदे साँसों-साँस उलीचें<br />बह-बह बहती यह नीलाभा<p><br /> भरे-भरे सारे ही बर्तन<br /> रखता जा अपने तलघर में<p><br />जड़दे लोहे के किवाड़ पर<br />बिन चाबी के सातों ताले<p><br /> दसियों, बीसों बरसों तक के<br /> करले जो कर सके जतन तू<p>,<br />छींप न पाए तेरी मेड़ी<br />धरती जादों की परछाई<p><br />बिणजारे आकाश करले,<br />जितनी भी कर सके कमाई !<p><br /> चम-चमती आँखें उघाड़कर<br /> देख, देखता, गोखे भी जा<p><br /> मेरे एक कलेजे के ही<br /> इस कोने पर अड़ा-अड़ा-सा<p><br /> हर क्षण उठे पछाटें खाए<br /> यह है अड़ियल अरबी सागर<p><br /> धोके है जिसको गंगाजी<br /> वह आमार बांगला खाड़ी<p><br /> चढ़-उतराती साँसों ऊपर<br /> लोहे के मस्तूल फरफरें<p><br /> बंसी-जालों वाला मानुष<br /> मर, जन्में पीढ़ी-दर-पीढ़ी<p><br /> निरे लाड से इसे पुकारूँ<br /> पूरब का वासी हिंदोदध<p><br /> तू भी देख न पाया आँगन<br /> वह मेरा ही शान्त, प्रशान्त<p><br /> सोया-सोया लगे तुझे जो<br /> वह त्राटक साधक कश्यपजी<p><br /> हो जाए है तन कुंदनिया<br /> वह कुंकुमिया लाल समंद<p><br /> अनहद नाद किए ही जाए<br /> कामरूप में ब्रह्मपुत्र जी<p><br />पंचोली पंजाबन बैठी<br />आंजे आँखों में नीलाई<p><br />बिणजारे आकाश ! करले,<br />जितनी भी कर सके कमाई !<p><br /> काले-पीले चेहरों वाले<br /> वर्तुल चौकीदार बिठाले<p><br /> कह, कानों में धूपटिये से<br /> और भरे ईंधन अलाव में<p><br /> कह, उसकी लपती लाटों से<br /> मेरी बळत अजानी उससे<p><br /> भक-भक झोंसे जाए लम्पट<br /> मेरे हरियाये खेतों को<p><br /> साझा कर उंचास पवन से<br /> भल माटी को रेत बनादे<p><br /> सातों जीभों को सौ करले<br /> पी-पी, चाट खुरचता जाए<p><br /> सुन, मेरे ओ अथ के साथी !<br /> मेरी इति ना देख सकेगा<p><br /> उससे पूछ, याद आ जाए<br /> एक समंदर लहराता था<p><br /> कैसे छोड़ गया मुझको वह<br /> मैंने कभी न पूछा उससे<p><br /> अब खारा, मीठा, बर्फीला<br /> जितना भी है, जैसा भी है<p><br /> कभी तुम्हारा दिया हुआ ही<br /> अब यह केवल मेरा ही है<p><br /> इससे अपनी कूख संजोई<br /> प्राणों से पोशा है इसको<p><br /> इसका दूजा रूप रचा जो<br /> ले, मेरी आँखों में देख !<p><br /> झील, झीलता झीले है ना ?<br /> ले, तू, इसमें खुद को देख !<p><br /> मानवती आँखों का पानी<br /> या फिर पानी वाली माटी<p><br />अगर एक भी सूखे तुझसे<br />मैंने अपनी जात गंवाई !<p><br />बिणजारे आकाश ! करले,<br />जितनी भी कर सके कमाई ? ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#37">37. आँखों भर की हदवाले आकाश !</a></font><br /><p><br />आँखों भर की हदवाले आकाश !<br />एक-एक संवत्सर ही क्यों<br />कई-कई अनुवत्सर तक भी<br />रख पानी का<br />पत तू अपने पास !<br />आँखों भर की हदवाले आकाश !<p><br />चल-अचलों को रच-रच रचती<br />सदा गर्भिणी धाय धरा को<br />नहीं रही है<br />केवल तेरी आस<br />आँखों भर की हदवाले आकाश !<p><br />देख रे ओ नागे ओगतिये !<br />सूखे आँचल सात समंदर,<br />पहले तू ही<br />पांणले अपनी प्यास,<br />आँखों भर की हदवाले आकाश !<p><br />कभी-कभी रिमझिम बरसे जो<br />वह मेरी माटी माँ का ऋण<br />मत लौटा तू<br />रखले अपने पास<br />आँखों भर की हदवाले आकाश !<p><br />आँख खोलने से पहले ही<br />मुझे पिलाई गई एषणा<br />वही बुने है<br />कई-कई आकाश<br />आँखों भर की हदवाले आकाश !<p><br />इसके गहन क्रोड़ में अमरत<br />जीवट भरे कुम्भ जीवन का<br />अन्तस-बाहर<br />दोनों हरियल टांस<p><br />आँखों भर की हदवाले आकाश ! ::<br /><br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=6 ><br /><a name="#38">38. सड़कवासी राम !</a></font><br /><p><br />सड़कवासी राम !<br /> न तेरा था कभी<br /> न तेरा है कहीं<br />रास्तों-दर-रास्तों पर<br /> पाँव के छापे लगाते ओ, अहेरी !<br />खोल कर मन के किवाड़े सुन,<br /> सुन कि सपने की<br />सपने की किसी<br />सम्भावना तक में नहीं<br /> तेरा अयोध्या धाम.....<br />सड़कवासी राम !<p><br /> सोच के सिर मौर<br /> ये दसियों दसानन<br />और लोहे की ये लंकाएँ<br /> कहाँ है क़ैद तेरी भूमिजा<br />खोजता थक देखता ही जा भले तू<br /> कौन देखेगा,<br /> सुनेगा कौन तुझको ?<br />थूक फिर तू क्यों बिलोये राम.....<br />सड़कवासी राम !<p><br /> इस सदी के ये स्वयम्भू<br /> एक रंग-कूंची छुआकर<br />आल्मारी में रखें दिन<br /> और चिमनी से निकाले शाम.....<br />सड़कवासी राम !<p><br /> पोर घिस-घिस क्या गिने<br /> चौदह बरस तू<br />गिन सके तो<br />कल्प साँसों के गिने जा<br /> गिन कि कितने<br /> काट कर फैंके गए हैं<br />एषणाओं के जटायु ही जटायु<br /> और कोई भी नहीं<br /> संकल्प का सौमित्र<br /> अपनी धड़कनों के साथ<br />देख, वामन सी<br /> बड़ी यह जिन्दगी !<br />करदी गई है इस शहर के<br /> जंगलों के नाम.....<p><br />सड़कवासी राम ! ::<p><br /><td width=20% bgcolor="#FFFFF4" valign="top" align="top" ><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p></td><br /></tr></tbody></table>सरला माहेश्वरीhttp://www.blogger.com/profile/09585198121848413291noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7813576005628784243.post-40053796287911484862008-08-18T23:08:00.000-07:002008-12-06T21:18:10.564-08:00भाग-6<table width=100% border=0><tbody><tr><td width=7% bgcolor="#D22205"> </td><br /><td width=7% bgcolor="#D22205"> </td><td width=7% bgcolor="#D22205"> </td><br /><td width=80% valign="top" align="left" bgcolor="#C8E8EB"><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#39"></a><br />39. केवल घर, घरवाला खोजें.....</font> <br /><p><br />केवल घर, घरवाला खोजें.....<br />चलने का पहला दिन,<br />और आज का यह दिन,<br />और नहीं कुछ<br /> केवल घर, घरवाला खोजें.....<p><br />इसी गरज की मार कि जमादार को<br />पहली चौकी दर्ज़ कराई<br />नाम, वल्दियत, उम्र कि जंगल-<br />है तो शहरीला ही,<br /> खुली हुई ड्योढ़ी में आंगन,<br /> आँगन के पसवाड़े चूल्हा,<br /> चकले-चुड़ले की संगत पर<br /> कांसी की थाली पर बजती<br /> परभाती-संझवाती पर तो रीझेंगे ही, पर-<br />चलने का पहला दिन.....<p><br />सिले होठ सी<br />लगी नाम की<br />एक-एक तख्ती के पीछे<br /> केवल जड़े किवाड़े देखें-<br />चलने का पहला दिन.....<p><br />दीवारों ही दीवारों के बीहड़ में भी<br />रस्ते धोती धूप कहीं तो दिख जाएगी,<br />सूरज के आगे चंदोवे ताने<br />चौक-गली में रचते ही होंगे कारीगर, पर-<br />चलने का पहला दिन.....<p><br />धोये है आकाश चिमनियाँ<br />खड़ा आदमी पंच करे है-<br />अपना होना,<br /> लोहे के दड़बों में<br /> केवल अँधी होड़ सरीखी<br /> भाग रही सड़कों को देखें-<br />चलने का पहला दिन.....<p><br />गुमसुम के पर्वत के नीचे दब-चिंथ जीती<br />बतियाने की केवल<br />एक बळत सुन लेने<br /> इतने अपनों बीच परायी<br /> एक अकेली<br /> दुख-दुख कर सूजी आँखों में<br /> सारथ हो चलने की<br /> एक कौंध पा लेने-<br />चलने का पहला दिन.....<p><br />दिनों-दुखों की<br />जोड़ भूल कर,<br />दूरी को आँजे आँखों में<br />एक बड़ी दुनिया हो गए शहर में<br /> और नहीं कुछ<br /> अपनापा केवल अपनापा खोजें-<p><br />चलने का पहला दिन,<br />और आज का यह दिन<br />और नहीं कुछ<br /> केवल घर, घरवाला खोजें..... ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#40"></a>40. जो पहले अपना घर फूंके,</font><p><br />जो पहले अपना घर फूंके,<br />फिर धर-मजलां चलना चाहे<br /> उसको जनपथ की मनुहारें !<p><br /> जनपथ ऐसा ऊबड़-खाबड़<br /> बँधे न फुटपाथों की हद में<p><br /> छाया भी लेवे तो केवल<br /> इस नागी, नीली छतरी की<p><br /> इसकी सीध न कटे कभी भी<br /> दोराहे-चौराह तिराहे<p><br /> दूरी तो बस इतनी भर ही<br /> उतर मिले आकाश धरा से<p><br /> साखी सूरज टिमटिम रातें<br /> घट-बढ़-घटते चंदरमाजी<p><br /> पग-पग पर बांवळिये-बूझे<br /> फिर भी तन से, मन से चाले<p><br /> उन पाँवों सूखी माटी पर<br /> रच जाती गीली पगडण्डी<br /> देखनहारे उसे निहारें<br />जो पहले अपना घर फूंके,<br />फिर धर-मजलां चलना चाहे<br /> उसको जनपथ की मनुहारें !<p><br /> इस चौगान चलावो रतना<br /> मंडती गई राम की गाथा<p><br /> एक गवाले के कंठो से<br /> इस पथ ही गूँजी थी गीता<p><br /> जरा, मरण के दुःख देखे तो<br /> साँस-साँस से करुणा बाँटी<p><br /> हिंसा की सुरसा के आगे<br /> खड़ा हो गया एक दिगम्बर<p><br /> पाथर पूजे हरी मिले तो<br /> पर्वत पूजूँ कहदे कोई<p><br /> धर्मग्रन्थ फैंको समन्दर में<br /> पहले मनु में मनु को देखो<p><br /> जे केऊ डाक सुनेना तेरी<br /> कवि गुरु बोले चलो एकला<p><br /> यूँ चल देने वाले ही तो<br /> पड़ती छाई झाड़-झूड़ते<br /> एक रंग की राह उघाड़ें<p><br />जो पहले अपना घर फूंके<br />फिर धर-मजलां चलना चाहे<br /> उसको जनपथ की मनुहारें ! ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#41"></a>41. हद, बेहद दोनों लांघे जो !</font><br /><p><br /> हद, बेहद दोनों लांघे जो !<p><br /> एकल मैं बज-बजता रहता<br /> थापे कोई फटी पखावज<br /> इसका इतना आगल-पीछल<br /> रीझे माया, सीझे काया<p><br />देखा चाहे सूरदास जो<br />इस हद में भी दिख-दिख जाएं-<br />मीड़, मुरकियों की पतवाले<br />निरे मलंगे अद्भुत विस्मय !<p><br /> ऐसों से बताये वो ही<br /> गांठे सांकल बांवळियों की<br /> इस हदमाते कोरे मैं को<br /> कीकर के खूँटे बाँधे जो !<br />हद, बेहद दोनों लांघे जो !<p><br /> आगे बेहद का सन्नाटा,<br /> खुद से बोल सुनो खुद को ही<br /> यहाँ न सूरज पलकें झपके<br /> रात न पल भर आँखें मूँदे<br />धाड़े तन सी हवा फिरे है<br />जहाँ भरी जाए हैं साँसें,<br />ऐसे में ही गया एक दिन <br />यम की ड्योढ़ी पर नचिकेता<br /> एक बळत के पेटे लेली<br /> सात तलों की एकल चाबी<br /> यह चाबी लेले फिर कोई<br /> ऐसा ही कुद हठ साधे जो !<br />हद-बेहद दोनों लांघे जो !<p><br /> बेहद की कोसा के उठते<br /> दीखन लागे वह उजियारा<br /> जिसका आदि न जाने कोई<br /> इति आगोतर से भी आगे<p><br />यह रचना का पहला आँगन<br />उसका दूजा नाम संसरण<br />प्राण यही, विज्ञान यही है<p><br /> रचे इसी में अनगिन सूरज<br /> इस अनहद में नाद गूँजते<br /> नभ-जल-थल चारी सृष्टि के<br /> हो जाए है वही ममेतर<br /> हद-बेहद दोनों रागे जो !<p><br />हद, बेहद दोनों लाँघे जो ! ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=5 ><br /><a name="#42"></a>42. हदें नहीं होती जनपथ की</font><br /><p><br />हदें नहीं होती जनपथ की<br />वह तो बस लाँघे ही जाए.....<br /> एकल सीध चले चौगानों<br /> चाहे जहाँ ठिकाना रचले<p><br /> अपनी मरजी के औघड़ को<br /> रोका चाहे कोई दम्भी<p><br /> चिरता जाए दो फाँकों में<br /> ज्यों जहाज़, दरिया का पानी<p><br />इससे कट कर बने गली ही<br />कहदे कोई भले राजपथ<p><br />इससे दस पग भर ही आगे<br />दिख जाए है ऊभी पाई ।<p><br />आर-पारती दिखे कभी तो<br />वह भी तो कोरा पिछवाड़ा<p><br /> इन दो छोरों बीच बनी है<br /> दीवारों की भूल भूलैया<p><br /> इनसे जुड़-जुड़कर जड़ जाएँ<br /> भीम पिरालें, हाथी पोलें<p><br /> ये गढ़-कोटे ही कहलाए<br /> अब ‘तिमूरती’ या ‘दस नम्बर’<p><br />इनमें सूरज घुसे पूछ कर,<br />पहरेदार हवा के ऊपर,<p><br />खास मुनादी फिरे घूमती<br />कोसों दूर रहे कोलाहल<p><br />ऐसे अजब घरों में जी-जी<br />आखिर मरें बिलों में जाकर<p><br /> जो इतना-सा रहा राजपथ<br /> उसकी रही यही भर गाथा<p><br /> आँखों वाले सूरदास जी<br /> कुछ तो सीखें इस बीती से<p><br /> पोल नहीं तो खिड़क खोल कर<br /> अरू-भरू होलें जो पल भर<br /> दिख जाए वह अमर चलारू<br /> चाले अपना जनपथ साधे !<p><br /> हदें नहीं होती जनपथ की<br /> वह तो बस लाँघे ही लाँघे !<p><br />जनपथ जाने तुम वो ही हो<br />सोच वही, आदत भी वो ही<p><br />यह तो अपने अथ जैसा ही<br />तुम ही चोला बदला करते<p><br />लोकराज का जाप-जापते<br />करो राजपथ पर बटमारी<br /> इसका नाभिकुंड गहरा है<br /> सुनो न समझो, गूँजे ही है<p><br /> लोकराज कत्तई नहीं वह<br /> देह धँसे कुर्सी में जाकर<p><br /> राज नहीं है काग़ज़ ऊपर<br /> एक हाथ से चिड़ी बिठाना<br />राज नहीं आपात काल भी<br />किसी हरी का नहीं की रतन<br />विज्ञानी जन सुन लेता है<br />यन्त्रों तक की कानाफूसी<br />‘रा’ रचता है कौन कहाँ पर<br />क्यों छपता है ‘राम’ ईंट पर<br /> सजवाते रहते आँगन में<br /> पाँचे बरस चुनावी मेला<p><br /> झप-दिपते, झप-दिपते में यह<br /> खुद को देखे, तुझको देखे<p><br /> भरी जेब से देखे जाते<br /> झोलीवाला पोंछा, पुरजा<br />कल तक जो केवल चीजें थी<br />आदमकद हो गई आज वे<br />चार दशक की पड़ी सामने<br />संसद में सपनों की कतरन<br />अब तो ये केवल दरजी हो<br />अपनी कैंची, सूई, धागा<br /> लो अब तुम ही देखे जाओ<br /> कैसे काट, उधेड़ें, साधे ?<br />हदें नहीं होती जनपथ की<br />वह तो बस लाँघे ही लाँधे ! ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#43">43. ऐसी एक छाँह देखी है.....</a></font><br /><p><br /> ऐसी एक छाँह देखी है.....<br /> खुली-खुली सी, धुली-धुली सी,<br /> शीतल-शीतल, बोल-अबोली,<br /> घेर, घुमेरों गहरी-गहरी<p><br />देख, देखता लगा नापने<br />मेरा अचरज इसकी सींवें,<br />वह क्या जाने, वह तो केवल<br />नीली रूपवती सैरंध्री<p><br /> अपनी ओछी डोर समेटे<br /> भीतर दुबका उधम मचाये<br /> दबचिंथ दबचिंथ छूटूँ ही तो---<p><br />छूट-छूटते उघड़ें आँखें,<br />सावचेत हो देखन लागूँ-<br />लगी हुई है ठीक भुवन के<br />बीचोबीच सुपर्णी टिकुली<p><br /> उससे यूँ छँवयाये मुझमें<br /> छन-छन जाय एक रोशनी<br /> एक गुनगुना जगरा लहरे<p><br />इससे भीतर हलबल-हलबल<br />बाहर का मैं आकळ-बाकळ<br />ताप तताये आ-आ निकलें<br />आखर-आखर के ही छौन<br /> करते जाएं वे रागोली<br /> टमका-टमका करें निहारे<br /> ठिठका-ठिठका पाँव उठाऊँ<p><br />दिखें मुझे ऐसे कमतरिये<br />इक दूजे की परछाई से<br />इनमें ही अपने होने की<br />वैसी एक चाह देखी है<br /> ऐसी एक छाँह देखी है ! ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#44">44. ऐसी एक ठौर देखी है !</a></font><br /><p><br />ऐसी एक ठौर देखी है !<br /> सड़क नहीं पगडण्डी कोई<br /> नहीं कहीं से बँटी-बँटी सी<p><br /> पाँव-पाँव को चलन बताए<br /> दूरी से अनुराग सिखाए<p><br />चले तो खुद ही पथ बन जाए<br />लगे बिछी दाके की मलमल<p><br />देखन लागो, थके न आँखें<br />हेमरंग डूँगर ही डूँगर<p><br /> लगो पूछने अपने से ही<br /> यह रचना किसने देखी है !<br />ऐसी एक ठौर देखी है !<p><br /> यहाँ सुबह से पहले उठती<br /> रमझोळों वाली यह ड्योढ़ी<p><br /> धूपाली गायों के संग-संग<br /> रंभाती दूधाली गायें<p><br />यह अपने पर घर रूपाये<br />खुद सिणगारी ऐसे संवरे<br />जैसे लडा-लडा बेटी को<br />मायड़ केश संवारे गूँथे<p><br /> भर-भर भरती जाय कुलांचें<br /> यहीं एक हिरनी देखी है !<br />ऐसी एक ठौर देखी है !<p><br /> थप-लिपती इसकी सौरम को<br /> हवा उड़ाये ऐसे फिरती<p><br /> जैसे हाथ छुड़ा कर भागे<br /> हँसती हुई खिलंदड़ छोरी<p><br />आँक नहीं है, बाँक नहीं है<br />इसके मन में फाँक नहीं है<br />सुनो तो लागे सबको ऐसी<br />बेहदवाली बोल रही है<p><br /> बाथों में भूगोल सरीखी<br /> जैसे विषुवत ही रेखी है !<br />ऐसी एक ठौर देखी है ! :::<br /><td width=20% bgcolor="#FFFFF4" valign="top" align="top" ><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p></td><br /></tr></tbody></table>सरला माहेश्वरीhttp://www.blogger.com/profile/09585198121848413291noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7813576005628784243.post-756536298012426892008-08-18T09:25:00.000-07:002008-12-06T21:27:26.225-08:00भाग-7<table width=100% border=0><tbody><tr><td width=7% bgcolor="#D22205"> </td><br /><td width=7% bgcolor="#D22205"> </td><td width=7% bgcolor="#D22205"> </td><br /><td width=80% valign="top" align="left" bgcolor="#C8E8EB"><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#45"><br />45. ऐसी एक चलन देखी है !</a></font> <br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /> ऐसी एक चलन देखी है !<br /> अपना होना<br /> बिसरी-बिसरी<br /> इस-इसको, उस-उसको निरखे<br /> इसकी खातिर<br /> उसकी खातिर<br /> अपना होना बीजे जाए<p><br /> सींचे हेत<br /> पसीना सींचे<br /> कभी न सोये पहरेदारिन<br /> एक हाथ<br /> सबसे ऊपर हो<br /> सूरज के नीचे छतरी सी<p><br /> हवा बिफरती<br /> आए जब भी<br /> केवल आँचल भर हो जाए<br /> लीलटांस <br /> जैसे सपनों को<br /> अपनी आँखों रहे निथारे<p><br />ऐसी एक लगन देखी है !<br />ऐसी एक चलन देखी है !<p><br /> यूँ बज-बजती<br /> रहे जहाँ वह,<br /> कहे रसोई यहाँ और बज<br /> काँसी बजती<br /> राग भैरवी<br /> सुनते ही तो भागी आए<br /> हाथ हिले<br /> समिधायें जुड़लें<br /> हड़-हड़ हांसन लागे चूल्हा<br /> रसमस-रसमस<br /> आटा-पानी<br /> थप-थप थपे.....थपे चंदोवे<p><br /> सिक-सिक उतरें<br /> गट-गट, गप-गप<br /> आखर भागें धाप रागते<br /> खाली हांडी<br /> और कठौती<br /> छू-छू कर होना पूरे जो<p><br />ऐसी एक छुअन देखी है ! <br />ऐसी एक चलन देखी है ! ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#46">46. घर का सच</font></a><br /><p><br /> घर का सच<br /> अब ऐसा सा है !<p><br />मुझसे तो बावन कद ऊँची<br />लम्बी, चौखानी दीवारें<br />सांचों ढली, कसी छत ऊपर<br />चित-पट दोनों सुते-सुते से<p><br />धुंधआए काँचों की खिड़की<br />रोशनदान बिवाई जैसे<br />एक हाथवाला दरवाजा<br />उस पर खुदी आँख भर जाली<p><br />टनन-टनन पर ताका-झाँकी<br />एक अबोली हाँ-ना-ना-हाँ<br />नब्बे का आधा खुलते ही<br />अपने आप बन्द हो जाए<p><br /> अब बाहर से<br /> क्या रिश्ता है ?<br /> भीतर सब मैं-मैं जैसा है<br /> घर का सच<br /> अब ऐसा सा है !<p><br />सजी-संवारी ये डिबियायें<br />मानें हैं खुद को दुनियायें<br />उझक-उझक देखा करती ये<br />टुकड़-टुकड़ा आसमान को<p><br />धूप तो केवल चिंदी-कतरन<br />हवा, साँस तो कूलर से ही<br />बातों की गुंजाइश कम है<br />पहले घड़ी, कलैंडर देखें<p><br />इनके अनुवादों, भाष्यों पर<br />होना, ना होना होता है<br />ये जब-जब भी बोली होतीं<br />मेरी खातिर गूंगे का गुड़<p><br /> इसको खा<br /> ना खाकर भी तो<br /> कैसे कहूँ स्वाद कैसा है ?<br /> घर का सच<br /> अब ऐसा सा है !<br />इसे देखते लागे मुझको<br />मैं तो एक अजूबा भर हूँ<br />एक अजूबा पूछूँ किससे<br />किसने कहा घोलले खड़िया<p><br />ले माटी से उपजा डोका<br />यह ले चाकू थाम हाथ में<br />छिल-घिस-छिल-घिसकर इसको तू<br />लिखने वाली पाँख बनाले<p><br />ले यह पाटी अपने आगे<br />देख-समझ कर मांड मांडणे<br />अपने में ही धूज-धूजते<br />पाटी, पाँख थामली हाथों<p><br /> ईंड-मींडिया<br /> मांड-मांडते<br /> लागा अ अच्छर जैसा है !<br /> घर का सच<br /> अब ऐसा सा है !<p><br />धर-मजलां लिख-लिखते समझा<br />घर का माने आँगन, आँगन<br />ऊपर आसमान जैसी छत<br />बगलग़ीर होत दरवाजे<p><br />धूप तो जेसे चोला-धोती<br />झलती पंखी साँस सरीखी<br />बोली तो ऐसी बोलारू<br />पाखी सुन माने बतलाए<p><br />पर अब तो बगसा बोले है<br />शाम हो ऐसी, सुबह वैसी,<br />दिन तो जोड़-गुणा-बाकी ही<br />रातों का व्याकरण अलग है<br /> मुझ वामन को<br /> यहा यूँ लागे<br /> लीलावती गणित जैसा है !<p><br /> घर का सच<br />अब ऐसा सा है ! :: <br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#47">47. ना घर तेरा, ना घर मेरा</font></a><p><br />ना घर तेरा, ना घर मेरा<br />लुबडुब थमने तक का डेरा !<p><br /> इस डेरे के भीतर बीहड़<br /> कांटें और उगाएँ बाहर<br /> भीतर के काँटों से छिल-छिल<br /> बाहर आ सुखियाया चाहें,<p><br />लागे बाहर तो चिरमी भर<br />हो ही जाए वह विंध्याचल<br />खाय झपाटे समझ सूरमा<br />थकियाये भीतर जा दुबकें<p><br /> दुबके-दुबके बुनें जाल ही<br /> फैंके चौकस बन बहेलिये<br /> कटे, कभी तो उड़ ही जाए<br /> आखी उमर चले यह फेरा !<p><br />ना घर तेरा, ना घर मेरा<br />लुब-डुब थमने तक का डेरा !<p><br /> इस फेरे को देखे ही हैं<br /> क्या लेकर आता है काई<br /> फिर भी हर-हर लगे मांडता<br /> जमा-नाव के खाते-पाने<p><br />पोरें घिस-घिस गिनता जाए<br />ज्यू-त्यूं जुड़ें नफे का तलपट<br />यह तलपट हो जाय तिजूरी<br />यूँ-व्यूँ नापे, तोले-जोखे<p><br /> ऐसे में ही साँस ठहरले<br /> सीढ़ी झुक हो जाय बिछौना<br /> आ ! मैं-तू दोनों ही देखें<br /> क्या ले जाए साथ बडेरा ?<p><br />ना घर तेरा, ना घर मेरा<br />लुबडुम थमने तक का डेरा !<p><br /> जाते बड़कों की जमघट में<br /> अनदेही होकर भी देही<br /> चौराहों पर बोल बोलते<br /> दिखें कबीर, शिकागो-स्वामी,<p><br />इन दोनों का कहा बताया<br />इनसे पहले कई कह गए<br />सुना, अनुसना करते आए<br />करते ही जाए हैं अब भी<p><br /> पर एकल सच इतना-सा ही<br /> सबका होना सबकी खातिर<br /> इस सच का सुख सिर्फ यही है<br /> और न कोई डैर-बसेरा !<br />ना घर तेरा ना घर मेरा<br />लुबडुब बसने तक का डेरा ! ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#48">48. उड़ती हुई सुपर्णा मुझसे</a></font><br /><p><br />उड़ती हुई सुपर्णा मुझसे<br /> इतना पूछ गई !<p><br />सोचे बैठा,<br />ये-वो आसमान तो रचलूं,<br />उठी न जाने<br />किस अनहद से<br />दोनों हाथ बाँध कर मेरे<br /> मुझसे झूझ गई !<p><br />देख बतातो<br />अपने आगे ठूंठ सरीखे <br />बीती बातों के करघे पर<br />कितने बरसों, कितनी साधी<br />आड़ी तानें, सीधी तानें,<br /> कितनी छूट गई !<p><br />इतने बरसों<br />कितने थान बुने बोलो तो,<br />कैसे रंग सने देखो तो,<br />ओढ़-बिछा क्या-क्या पहनोगे ?<br />प्रश्नों की अनबूझ पहेली<br /> मुझमें गूंथ गई !<p><br />यह ले दर्पण<br />झुरियाया तन, फटियल आँखें,<br />राखोड़ी रंग, फटी-फटी सी<br />एक चटाई भर देखूं मैं<br />यही बुना क्या, कहते-कहते<br /> मुझको कूंत गई !<p><br />जाने कब से<br />वैसी सी ही फिर चाहूँ मैं<br />गूंजे-अनुगूंजें उतरे फिर,<br />पळ-पळती बारहखड़ी देखे-<br />बीती की गुळगांठ खोलते<br /> पोरें सूज गई<p><br />उड़ती हुई सुपर्णा मुझसे<br /> इतना पूछ गई ! ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="49"></a>49. उड़ना मन मत हार सुपर्णे</font><br /><p><br />देख लिए देखे ही है तू<br /> अपने पर मंडराते बाज,<br />पड़ी पड़े कड़कड़ा कभी फिर<br /> जाने कौन दिशा से गाज,<p><br />आए-गए सभी जुड़वां थे<br /> वैसे ही ऊभे कारीगर,<br />भरा हुआ तरकश है पीछे<br /> दोनों हाथों सधी कमानी<br />नाद-भेदिये छोड़ेंगे ही<br />विश-बुझे तीर कलेजे पार<br /> सुपर्णे उड़ना.....<p><br />रंग-पुती आंखें ही देखें<br /> बाहर का बाहर ही बाहर,<br />एक अहम देखे ही फिर क्यों<br /> इस विराट का कैसा अन्तर<p><br />बाहर के भीतर दुनिया<br /> देखे यह जड़ भरत कभी तो,<br />ना-जोगे इस सूरदास की<br /> भीतरवाली खुले कभी तो<br />दिखे उसे तब इस दर्पण में<br />मेरे मैं का क्या आकार ?<br /> सुपर्णे.....<p><br />रचनावती एषणावाले<br /> सुन तू समय पुरुश बोले है,<br />अथ-इति-अथ की उलझी आडी<br /> निपट भाखरी में खोले हैं,<p><br />एक नहीं वे साते मिलें जब<br /> मैं-तू बनें तभी संज्ञाएं,<br />जीना-मर-जीना इतना भर<br /> आँखें झप खुल झप-खुल जाएं<br />लगते से सारे असार में<br />संसरित ये-वे सब संसार<br /> सुपर्णे.....<p><br />नीली-नीली आँखों वाले<br /> तेरा धरम उड़ानें भरना,<br />सबको साखी रख-रख तुझको<br /> सांसों-सांसा सिरजते रहना,<p><br />जो देखे है सब हम रूपी<br /> रम रमता सबमें रमजा तू<br />कलकलता बह रहा अथाही<br /> घुल-घुलता इसमें घुल जा तू<br />तू इस विस्मय का अंशी है<br />तेरे होने का यह सार<br /> सुपर्णे उड़ना मन मत हार । ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#50">50. यूं जीने का रोज भरम उघड़े</a></font><br /><p><br />रात-रात भर<br />निपट निगोड़े आखर जनना<br />होने की मजबूरी<p><br />किरणों का रंभाना सुन-सुन<br />सरकंडों की लाज ठेल कर<br />बोल-बोलते ये जा.....वो जा.....<br />यह उनकी मजबूरी,<p><br />मेरे जाये<br />मुझ तक तो वे लौटेंगे ही<br />आखा दिन हेराती आँखों<br />लौट रहे<br />हर एक सयाने का सपना उतरे<br />यूं जीने का.....<p><br />सुनूं अचानक <br />लोहे के जबड़े से छूटी<br />हू-हू करती हूंक,<br />सुनूं पड़ी, पड़ती जाए यूं<br />सड़सड़ाक कोड़े,<p><br />मगर न चीखे कोई, ना कोई कुरळाए<br />लगे, सांस में ठरा-ठरा<br />भीगा, खारा गुमसुम<br />कड़वाया गुमसुम,<p><br />हाथों से हम्फनी साधता देखे जाऊँ-<br />सुबह गए जो घुटरुन-घुटरुन<br />झलझल-झलमल से दिप दिपते,<br />वे ही हां वे मेरे आखर<br />तुड़े-मुझे सब आंगन आय पड़े<br /> यूं जीने का.....<p><br />बाप सरीखा तरणाटी खा<br />अपने आपे से आ निकलूं,<br />नीली मेड़ी उतर-उतर कर भाग गई जो<br />सड़कों-गलियों,<br />पीछे-पीछे बोली होने को अतुराये<br />मेरे आखर,<p><br />वह भी तो लौटी ही होगी<br />जा पकडूं जो दिखे कहीं वह,<br />कोई नहीं....सिर्फ सन्नाटा.....<p><br />ऊपर था न,<br />कहां गया वह आसमान ही<br />दिखती केवल गीली स्याह कपास<p><br />एक अकेला दस-दस हाथों<br />चिथराता उतरे,<br />मेरे आंगन मेरे दिन की<br />ऐसी सांझ झरे,<br />आखर के सपनों का हर दिन<br />कलमष हो उतरे<p><br />यूं जीने का रोज भरम उघड़े । ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><FONT color="#FF0000" size=4 ><br /><a name="#51">51. अभी और चलना है.....</a></font><br /><p><br />अभी और चलना है.....<br />दरवाजा खुलते ही बोले-<br /> मुझसे सड़क शुरू होती है,<br />आहट की थर-थर-थर पर ही<br /> लीलटांस पाँखें फर फरती<br />उड़े दूरियाँ गाती<br />चूना पुती हुई काली पर<br /> पाँवों को मण्डना है.....<p><br />कहते से बैठे हैं आगे.....<br /> चार, पाँच, कई सात रास्ते,<br />दस-दस बाँसों ऊँचे-ऊचे<br /> खड़े हुए हैं पेड़ थाम कर<br />छायाओं के छाते,<br />घाटी इधर, उधर डूंगर वह<br /> जंगल बहुत घना है.....<p><br />झुका हुआ आकाश जहाँ पर<br /> उस अछोर को ही छूना हो,<br />कोरे से इस कागज ऊपर<br /> अपने होने के रंगों को<br />भर देना चाहा हो<br />तब तो आखर के निनाद को<br /> सात सुरों सधना है.....<p><br />अभी और चलना है..... ::<br /><p align="right"><a href="#top">TOP</a></p><br /><td width=20% bgcolor="#FFFFF4"> </td><br /></tr></tbody></table><br /><hr><br /><center><a href="http://bhadanijibooks2.blogspot.com/">सन्नाटे के शिलाखंड पर</a></center>सरला माहेश्वरीhttp://www.blogger.com/profile/09585198121848413291noreply@blogger.com0