भाग-7




   

45. ऐसी एक चलन देखी है !

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    ऐसी एक चलन देखी है !
    अपना होना
    बिसरी-बिसरी
    इस-इसको, उस-उसको निरखे
    इसकी खातिर
    उसकी खातिर
    अपना होना बीजे जाए


    सींचे हेत
    पसीना सींचे
    कभी न सोये पहरेदारिन
    एक हाथ
    सबसे ऊपर हो
    सूरज के नीचे छतरी सी


    हवा बिफरती
    आए जब भी
    केवल आँचल भर हो जाए
    लीलटांस
    जैसे सपनों को
    अपनी आँखों रहे निथारे


ऐसी एक लगन देखी है !
ऐसी एक चलन देखी है !


    यूँ बज-बजती
    रहे जहाँ वह,
    कहे रसोई यहाँ और बज
    काँसी बजती
    राग भैरवी
    सुनते ही तो भागी आए
    हाथ हिले
    समिधायें जुड़लें
    हड़-हड़ हांसन लागे चूल्हा
    रसमस-रसमस
    आटा-पानी
    थप-थप थपे.....थपे चंदोवे


    सिक-सिक उतरें
    गट-गट, गप-गप
    आखर भागें धाप रागते
    खाली हांडी
    और कठौती
    छू-छू कर होना पूरे जो


ऐसी एक छुअन देखी है !
ऐसी एक चलन देखी है ! ::

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46. घर का सच


    घर का सच
    अब ऐसा सा है !


मुझसे तो बावन कद ऊँची
लम्बी, चौखानी दीवारें
सांचों ढली, कसी छत ऊपर
चित-पट दोनों सुते-सुते से


धुंधआए काँचों की खिड़की
रोशनदान बिवाई जैसे
एक हाथवाला दरवाजा
उस पर खुदी आँख भर जाली


टनन-टनन पर ताका-झाँकी
एक अबोली हाँ-ना-ना-हाँ
नब्बे का आधा खुलते ही
अपने आप बन्द हो जाए


    अब बाहर से
    क्या रिश्ता है ?
    भीतर सब मैं-मैं जैसा है
    घर का सच
    अब ऐसा सा है !


सजी-संवारी ये डिबियायें
मानें हैं खुद को दुनियायें
उझक-उझक देखा करती ये
टुकड़-टुकड़ा आसमान को


धूप तो केवल चिंदी-कतरन
हवा, साँस तो कूलर से ही
बातों की गुंजाइश कम है
पहले घड़ी, कलैंडर देखें


इनके अनुवादों, भाष्यों पर
होना, ना होना होता है
ये जब-जब भी बोली होतीं
मेरी खातिर गूंगे का गुड़


    इसको खा
    ना खाकर भी तो
    कैसे कहूँ स्वाद कैसा है ?
    घर का सच
    अब ऐसा सा है !
इसे देखते लागे मुझको
मैं तो एक अजूबा भर हूँ
एक अजूबा पूछूँ किससे
किसने कहा घोलले खड़िया


ले माटी से उपजा डोका
यह ले चाकू थाम हाथ में
छिल-घिस-छिल-घिसकर इसको तू
लिखने वाली पाँख बनाले


ले यह पाटी अपने आगे
देख-समझ कर मांड मांडणे
अपने में ही धूज-धूजते
पाटी, पाँख थामली हाथों


    ईंड-मींडिया
    मांड-मांडते
    लागा अ अच्छर जैसा है !
    घर का सच
    अब ऐसा सा है !


धर-मजलां लिख-लिखते समझा
घर का माने आँगन, आँगन
ऊपर आसमान जैसी छत
बगलग़ीर होत दरवाजे


धूप तो जेसे चोला-धोती
झलती पंखी साँस सरीखी
बोली तो ऐसी बोलारू
पाखी सुन माने बतलाए


पर अब तो बगसा बोले है
शाम हो ऐसी, सुबह वैसी,
दिन तो जोड़-गुणा-बाकी ही
रातों का व्याकरण अलग है
    मुझ वामन को
    यहा यूँ लागे
    लीलावती गणित जैसा है !


    घर का सच
अब ऐसा सा है ! ::    

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47. ना घर तेरा, ना घर मेरा


ना घर तेरा, ना घर मेरा
लुबडुब थमने तक का डेरा !


    इस डेरे के भीतर बीहड़
    कांटें और उगाएँ बाहर
    भीतर के काँटों से छिल-छिल
    बाहर आ सुखियाया चाहें,


लागे बाहर तो चिरमी भर
हो ही जाए वह विंध्याचल
खाय झपाटे समझ सूरमा
थकियाये भीतर जा दुबकें


    दुबके-दुबके बुनें जाल ही
    फैंके चौकस बन बहेलिये
    कटे, कभी तो उड़ ही जाए
    आखी उमर चले यह फेरा !


ना घर तेरा, ना घर मेरा
लुब-डुब थमने तक का डेरा !


    इस फेरे को देखे ही हैं
    क्या लेकर आता है काई
    फिर भी हर-हर लगे मांडता
    जमा-नाव के खाते-पाने


पोरें घिस-घिस गिनता जाए
ज्यू-त्यूं जुड़ें नफे का तलपट
यह तलपट हो जाय तिजूरी
यूँ-व्यूँ नापे, तोले-जोखे


    ऐसे में ही साँस ठहरले
    सीढ़ी झुक हो जाय बिछौना
    आ ! मैं-तू दोनों ही देखें
    क्या ले जाए साथ बडेरा ?


ना घर तेरा, ना घर मेरा
लुबडुम थमने तक का डेरा !


    जाते बड़कों की जमघट में
    अनदेही होकर भी देही
    चौराहों पर बोल बोलते
    दिखें कबीर, शिकागो-स्वामी,


इन दोनों का कहा बताया
इनसे पहले कई कह गए
सुना, अनुसना करते आए
करते ही जाए हैं अब भी


    पर एकल सच इतना-सा ही
    सबका होना सबकी खातिर
    इस सच का सुख सिर्फ यही है
    और न कोई डैर-बसेरा !
ना घर तेरा ना घर मेरा
लुबडुब बसने तक का डेरा ! ::

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48. उड़ती हुई सुपर्णा मुझसे


उड़ती हुई सुपर्णा मुझसे
    इतना पूछ गई !


सोचे बैठा,
ये-वो आसमान तो रचलूं,
उठी न जाने
किस अनहद से
दोनों हाथ बाँध कर मेरे
    मुझसे झूझ गई !


देख बतातो
अपने आगे ठूंठ सरीखे
बीती बातों के करघे पर
कितने बरसों, कितनी साधी
आड़ी तानें, सीधी तानें,
    कितनी छूट गई !


इतने बरसों
कितने थान बुने बोलो तो,
कैसे रंग सने देखो तो,
ओढ़-बिछा क्या-क्या पहनोगे ?
प्रश्नों की अनबूझ पहेली
    मुझमें गूंथ गई !


यह ले दर्पण
झुरियाया तन, फटियल आँखें,
राखोड़ी रंग, फटी-फटी सी
एक चटाई भर देखूं मैं
यही बुना क्या, कहते-कहते
    मुझको कूंत गई !


जाने कब से
वैसी सी ही फिर चाहूँ मैं
गूंजे-अनुगूंजें उतरे फिर,
पळ-पळती बारहखड़ी देखे-
बीती की गुळगांठ खोलते
    पोरें सूज गई


उड़ती हुई सुपर्णा मुझसे
    इतना पूछ गई ! ::

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49. उड़ना मन मत हार सुपर्णे


देख लिए देखे ही है तू
    अपने पर मंडराते बाज,
पड़ी पड़े कड़कड़ा कभी फिर
    जाने कौन दिशा से गाज,


आए-गए सभी जुड़वां थे
    वैसे ही ऊभे कारीगर,
भरा हुआ तरकश है पीछे
    दोनों हाथों सधी कमानी
नाद-भेदिये छोड़ेंगे ही
विश-बुझे तीर कलेजे पार
    सुपर्णे उड़ना.....


रंग-पुती आंखें ही देखें
    बाहर का बाहर ही बाहर,
एक अहम देखे ही फिर क्यों
    इस विराट का कैसा अन्तर


बाहर के भीतर दुनिया
    देखे यह जड़ भरत कभी तो,
ना-जोगे इस सूरदास की
    भीतरवाली खुले कभी तो
दिखे उसे तब इस दर्पण में
मेरे मैं का क्या आकार ?
    सुपर्णे.....


रचनावती एषणावाले
    सुन तू समय पुरुश बोले है,
अथ-इति-अथ की उलझी आडी
    निपट भाखरी में खोले हैं,


एक नहीं वे साते मिलें जब
    मैं-तू बनें तभी संज्ञाएं,
जीना-मर-जीना इतना भर
    आँखें झप खुल झप-खुल जाएं
लगते से सारे असार में
संसरित ये-वे सब संसार
    सुपर्णे.....


नीली-नीली आँखों वाले
    तेरा धरम उड़ानें भरना,
सबको साखी रख-रख तुझको
    सांसों-सांसा सिरजते रहना,


जो देखे है सब हम रूपी
    रम रमता सबमें रमजा तू
कलकलता बह रहा अथाही
    घुल-घुलता इसमें घुल जा तू
तू इस विस्मय का अंशी है
तेरे होने का यह सार
    सुपर्णे उड़ना मन मत हार । ::

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50. यूं जीने का रोज भरम उघड़े


रात-रात भर
निपट निगोड़े आखर जनना
होने की मजबूरी


किरणों का रंभाना सुन-सुन
सरकंडों की लाज ठेल कर
बोल-बोलते ये जा.....वो जा.....
यह उनकी मजबूरी,


मेरे जाये
मुझ तक तो वे लौटेंगे ही
आखा दिन हेराती आँखों
लौट रहे
हर एक सयाने का सपना उतरे
यूं जीने का.....


सुनूं अचानक
लोहे के जबड़े से छूटी
हू-हू करती हूंक,
सुनूं पड़ी, पड़ती जाए यूं
सड़सड़ाक कोड़े,


मगर न चीखे कोई, ना कोई कुरळाए
लगे, सांस में ठरा-ठरा
भीगा, खारा गुमसुम
कड़वाया गुमसुम,


हाथों से हम्फनी साधता देखे जाऊँ-
सुबह गए जो घुटरुन-घुटरुन
झलझल-झलमल से दिप दिपते,
वे ही हां वे मेरे आखर
तुड़े-मुझे सब आंगन आय पड़े
    यूं जीने का.....


बाप सरीखा तरणाटी खा
अपने आपे से आ निकलूं,
नीली मेड़ी उतर-उतर कर भाग गई जो
सड़कों-गलियों,
पीछे-पीछे बोली होने को अतुराये
मेरे आखर,


वह भी तो लौटी ही होगी
जा पकडूं जो दिखे कहीं वह,
कोई नहीं....सिर्फ सन्नाटा.....


ऊपर था न,
कहां गया वह आसमान ही
दिखती केवल गीली स्याह कपास


एक अकेला दस-दस हाथों
चिथराता उतरे,
मेरे आंगन मेरे दिन की
ऐसी सांझ झरे,
आखर के सपनों का हर दिन
कलमष हो उतरे


यूं जीने का रोज भरम उघड़े । ::

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51. अभी और चलना है.....


अभी और चलना है.....
दरवाजा खुलते ही बोले-
    मुझसे सड़क शुरू होती है,
आहट की थर-थर-थर पर ही
    लीलटांस पाँखें फर फरती
उड़े दूरियाँ गाती
चूना पुती हुई काली पर
    पाँवों को मण्डना है.....


कहते से बैठे हैं आगे.....
    चार, पाँच, कई सात रास्ते,
दस-दस बाँसों ऊँचे-ऊचे
    खड़े हुए हैं पेड़ थाम कर
छायाओं के छाते,
घाटी इधर, उधर डूंगर वह
    जंगल बहुत घना है.....


झुका हुआ आकाश जहाँ पर
    उस अछोर को ही छूना हो,
कोरे से इस कागज ऊपर
    अपने होने के रंगों को
भर देना चाहा हो
तब तो आखर के निनाद को
    सात सुरों सधना है.....


अभी और चलना है..... ::

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सन्नाटे के शिलाखंड पर

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