आडी तानें सीधी तानें


गीत संचयन



हरीश भादानी



हरीश भादानी जी का परिचय यहाँ देखें।

प्रकाशक: कवि प्रकाशन, डी-2, मुरलीधर नगर, बीकानेर - 334004

संस्करण : 2006 मूल्य: 120/- ISBN 81-86436-41-3

ई-प्रकाशक:


ई-हिन्दी साहित्य प्रकाशन,
एफ.डी.-453, साल्टलेक सिटी,
कोलकाता-700106 मो.-09831082737
Email: E-Hindi Sahitya Prakashan

[BIN Code: INHN 01-330001-033-1]


संपर्क :हरीश भादानी, छबीली घाटी, बीकानेर दूरभाष : 2530998

[Script: AADI TANE SEEDHI TANE (Poem) By Harish Bhadani]

भाग -2

आडी तानें सीधी तानें: अनुक्रम










 



ड़ी

 

ता

नें

 

सी

धी

 

ता

नें

 








1. ऐसे तट हैं - क्यों इन्करें

2. एक-एक क्षण जिया गया है

3. चाहे जिसे पुकार ले तू … अगर अकेली है!

4. सात सुरों में बोल… मेरे मन की पीर !

5. रही अछूती

6. सभी सुख दूर से गुजरें

7. सुधियाँ साथ निभाएँगी

8. साँसों की अँगुली थामे जो

9. फेरों बाँधी हुई सुधियों को

10. तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है

11. पीर कुछ ऐसी

12. मैंने नहीं कल ने बुलाया है !

13. शहर सो गया है!

14. क्षण-क्षण की छैनी से

15. थाली भर धूप लिए

16. उतरी जो चाह अभी

17. कोलाहल के आँगन

18. आए जब चौराहे

19. प्यास सीमाहीन सागर

20. उम्र सारी

21. टूटी ग़ज़ल न गा पाएँगे !

22. कल से क्या

23. ओ दिशा ! ओ दिशा !

24. आ, सवाल चुगें, धूपाएं.....आ !

25. ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए.....

26. सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े




27. शहरीले जंगल में सांसों

28. कोई एक हवा ही शायद

29. चले कहाँ से

30. पीट रहा मन बन्द किवाड़े !

31. बता फिर क्या किया जाए

32. सड़क बीच चलने वालों से

33. देखे मुझे हँसे सन्नाटा !

34. इसे मत छेड़ पसर जाएगी

35. रेत में नहाया है मन !

36. बिणजारे आकाश ! करले,

37. आँखों भर की हदवाले आकाश !

38. सड़कवासी राम !

39. केवल घर, घरवाला खोजें.....

40. जो पहले अपना घर फूंके,

41. हद, बेहद दोनों लांघे जो !

42. हदें नहीं होती जनपथ की

43. ऐसी एक छाँह देखी है.....

44. ऐसी एक ठौर देखी है !

45. ऐसी एक चलन देखी है !

46. घर का सच

47. ना घर तेरा, ना घर मेरा

48. उड़ती हुई सुपर्णा मुझसे

49. उड़ना मन मत हार सुपर्णे

50. यूं जीने का रोज भरम उघड़े

51. अभी और चलना है.....







   
1. ऐसे तट हैं - क्यों इन्करें


   ऐसे तट हैं --
      क्यों इन्कारें
      किरणें खीज
      खुरच जाती हैं
माटी पर दो - चार दरारें


   ऐसे तट हैं --
      क्यों इन्कारें


      भरी - भरी - सी
      सांस - झील पर
तन-मन प्यासे पंख पसारें


   ऐसे तट हैं --
      क्यों इन्कारें
      परदेशी
      बुद बुदे देखने
कंकर फैंकें, थकन उतारें


   ऐसे तट हैं --
      क्यों इन्कारें ::

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2. एक-एक क्षण जिया गया है



      एक-एक क्षण जिया गया है
      अभी-अभी
      डूबे सूरज की
      दिनभर की
            कुनमुनी झील को
सांस-सांस भर पिया गया है
एक-एक क्षण जिया गया है


      अभी चुभे
      अंधियारे विष से
      सीत्कारती
            आवाज़ों को


रात-रात भर सिया गया है
एक-एक क्षण जिया गया है


      खोल मौन के
      बंद किवाड़े
      मन के इतने बड़े नगर में
कोलाहल भर लिया गया है
एक-एक क्षण जिया गया है ::

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3. चाहे जिसे पुकार ले तू ...अगर अकेली है!


चाहे जिसे पुकार ले तू
अगर अकेली है!


संध्या खड़ी मुंडेर पर
पछुवाए स्वर टेर कर
अँधियारे को घेर कर
ये सब लगे अगर परदेशी
आंगन दीप उतार ले तू
      अगर अकेली है!
चाहे जिसे पुकार ले तू.....


देख सितारे और गगन,
दुखती-दुखती बहे पवन
घड़ियाँ सरके बँधे चरण
ये भी लगे अगर परदेशी
कल का सपन संवार ले तू
      अगर अकेली है!
चाहे जिसे पुकार ले तू
अगर अकेली है!


टहनी-टहनी बांसुरी
आई ऊषा नागरी,
खिली कमल की पांखुरी
गीत सभी पूरब परिवेशी
अपने समझ पुकार ले तू
      अगर अकेली है!
चाहे जिसे पुकार ले तू
      अगर अकेली है! ::

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4. सात सुरों में बोल, मेरे मन की पीर !


सात सुरों में बोल
      मेरे मन की पीर !
हर पतझर के देश में,
जा बासंती वेश में
सिणगारी सी डोल,
      मेरे मन की पीर !
सात सुरों में बोल....


जा शोलों के राज में,
बदरी के अंदाज में,
रिमझिम घूंघट खोल,
      मेरे मन की पीर !
सात सुरों में बोल....


अपनी-अपनी राह पर
मन भाती हर चाह पर
विरह-मिलन मत तोल
      मेरे मन की पीर !
सात सुरों में बोल....


साँसों की सीमाओं पर
मुस्कानों पर, आहों पर
जीवन का रस घोल,
      मेरे मन की पीर !
सात सुरों में बोल....
      मेरे मन की पीर ! ::

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5. रही अछूती


रही अछूती
सभी मटकियाँ
मन के कुशल कुम्हार की
        रही अछूती....


साधों की रसमस माटी
फेरी साँसों के चाक पर,
क्वांरा रूप उभार दिया
सतरंगी सपने आँककर


        हाट सजाई
        आहट सुनने
        कंगनिया झन्कार की
रही अछूती
सभी मटकियाँ
मन के कुशल कुम्हार की
        रही अछूती....


अलसाई ऊषा छूदे
मुस्का मूंगाये छोर से,
मेहँदी के संकेत लिखे
संध्या पाँखुरिया पोर से
        चौराहे रख दी
        बंधने को
        बाँहों में पनिहार की
रही अछूती
सभी मटकियाँ
मन के कुशल कुम्हार की
        रही अछूती....


हठी चितेरा प्यासा ही
बैठा है धुन के गाँव में,
भरी उमर की बाजी पर
विश्वास लगे हैं दाँव में


        हार इसी आँगन
        पंचोली
        साधे राग मल्हार की
रही अछूती
सभी मटकियाँ
मन के कुशल कुम्हार की
        रही अछूती... ::

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6. सभी सुख दूर से गुजरें


सभी सुख दूर से गुजरें
गौजरतें ही चले जाएँ
मगर पीड़ा उमर भर
        साथ चलने को उतारू है


हमको सुखों की आँख से तो
बाँचना आता नहीं
हमको सुखों की साख से तो
आँकना आता नहीं
    अभावों के चढ़ेए साँस की खूँटी
    हमको सुखों की लाज से तो
    झाँकना आता नहीं
निहारे दूर से गुजरें
गुजरते ही चले जाएँ
मगर अनबन उमर भर
        साथ चलने को उतारू है


मगर पीड़ा अमर भर....


हमारा धुप में घर
छाँह की क्या बात जानें हम,
अभी तक तो अकेले ही चले
क्या साथ जाने हम
    लो पूछलो हमसे घुटन की घाटियाँ कैसी लगी
    मगर नंगा रहा आकाश
    क्या बरसाता जानें हम
बहारें दूर से गुजरें
गुजरती ही चली जाएँ
मगर पतझर अमर भर
        साथ चलने को उतारू है


मगर पीड़ा अमर भर...


अटारी को धर से
किस तरह आवाज दे दें हम
महेंदिया चरण को
क्यों दूर का अंदाज दे दें हम,
    चले शमशान की देहरी
    वही है साथ की संज्ञा
    बरफ के एक बुत को
    आस्था की आँच क्यों दें हम
हमें अपने सभी बिसरें
बिसरते ही चले जाएँ
मगर सुधियाँ उमर भर
        साथ चलने को उतारू है


सभी शुख दूर से गुजरें
गुज़रते ही चले जाएँ
मगर पीड़ा उमर भर
        साथ चलने को उतारू है। ::


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7. सुधियाँ साथ निभाएँगी


सुधियाँ साथ निभाएँगी


    थकी अगर
   रुकी जाएँगी,
दूरी भर-भर आएँगी,
मुझको छोड़ न पाएँगी
तुम न भले ही साथ चलो
सुधियाँ साथ निभाएँगी
        थकी अगर......


    पीड़ा ओढ़े
    धूप हमारे साथ में
    और दुःखों के हाथ
    हमारे हाथ में
आकर्षण दिखलाएँगी
मृगतृष्णा बन जाएँगी
और सरकती जाएँगी
    तुम न भले ही साथ चलो
सुधियाँ साथ निभाएँगी
        थकी अगर.......


    मेरा उस
    सुर्खी के पार पड़ाव है
    राहों में अनजान
    चढ़ाव-ढलाव है
आहट कर-कर जाएँगी
प्रतिध्वनियों- सी आएँगी
मुझको सीध बताएँगी
        तुम न भले ही साथ चलो
सुधियाँ साथ निभाएँगी
        थकी अगर......


    पाप-पुण्य की
    परिभाषा से दूर हैं
    बंदी सुख की
    अभिलाषा से दूर हँ
सावन- सी बदराएँगी
रिमझिम कर बतियाएँगी
फ़ूलों-सी महकाएँगी
    तुम न भले साथ चलो
सुधियाँ साथ निभाएँगी
    थकी अगर
    रुक जाएँगी
दूरी भर-भर आएँगी
मुझको छोड़ न पाएँगी
तुम न भले ही साथ चलो
सुधियाँ साथ निभाएँगी ::

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भाग-3




   

8. साँसों की अँगुली थामे जो


साँसों की अँगुली थामे जो
        आए क्वांरी साध तो
    गीतों से माँग संवार दूँ
    मैं रागों से सिंगार दूँ
संकेतों की मनुहार दूँ
साँसों की अँगुली थामे जो.....


    गीतों के आखर को सुर्खी
        दी है तीखी धूप ने
    रागों के स्वर को आकुलता
        दी लहरों के रूप ने
    तट सा मौनी सपना कोई
        चाहे मेरा साथ तो
    पीड़ा-सा उसे उभार दूँ
    सौ आँसू उस पर वार दूँ
आशाओं के उपहार दूँ
साँसों की अँगुली थामे जो.....


    मेरे गीतों को ढलुआनें
         दी झुकते आकाश ने
    रागों को बढ़ना सिखलाया
        वनपाखी की प्यास ने
    शूलों से बतियाते कोई
        आए मुझ तक पाँव तो
     मैं बाँहों को विस्तार दूँ
     मैं दो का भेद बिसार दूँ
परछाई सा आकार दूँ
साँसों की अँगुली थामे जो.....


    मेरे गीतों को गदराया
        सावन की सौगात ने
    रागों को गूँजें दे दी हैं
        मेघों की बारात ने
    रिमझिम बरखा जैसी कोई
        बरसे मुझ पर याद तो
    मैं मन की जलन उतार दूँ
    मैं धुँधले पंथ निखार दूँ
मैं सारा सफर गुजार दूँ
सांसों की अँगुली थामे जो.....


मेरे गीतों में सागर की
        अनदेखी गहराई है
मेरी रागों के सरगम में
        मौजों की तरुणाई है
सूनेपन से सिहरी-सिहरी
        बहके कोई नाव तो
    मैं मलयाई पतवार दूँ
    मैं हर क्षण फेनिल प्यार दूँ
मैं कोई तीर उतार दूँ
साँसों की अँगुली थामे जो
        आए क्वांरी साध तो
    गीतों से माँग संवार दूँ
    मैं रागों से सिंगार दूँ
संकेतों की मनुहार दूँ
साँसों की अँगुली थामे जो ::

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9. फेरों बाँधी हुई सुधियों को


फेरों बँधी हुई सुधियों को
        कैसे कितना
        और बिसारें
    आती ही जाती
    लहरों-सी
    दूरी से सलवटें संजोती
    तट की फटी दरारों में ये
    फेनाया-सा
    तन-मन खोती
अनचाहा यह मौन निमन्त्रण
कौन बहानों से इन्कारें


फेरों बँधी हुई सुधियों को
        कैसे-कितना
        और बिसारें


    रतनारे नयनों को मूँदे
    पसर-पसर
    जाती रातों में
    सिहर-सिहर
    टेरें भरती हैं
    खोजी सपनों की बातों में
साँसों पर कामरिया का रंग
किन हाथों से पोंछ उतारें


फेरों बँधी हुई सुधियों को
        कैसे, कितना
        और बिसारें


    परदेशी जैसी
    अधसोई
    अलसा-अलसा कर अकुलाती
    सूरज देख
    लाजवंती-सी
    उठ जाती
    परभाती गाती
धूप चदरिया मिली ओढ़ने
फिर क्यों तन से इसे उतारें


फेरों बंधी हुई सुधियों को
        कैसे-कितना
        और बिसारें ::

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10. तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है


    तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है
    क्या हुआ जो
    रागिनी को पीर भागई
    क्या हुआ जो
    चाँदनी को नींद आगई
स्याह घाटियों में कोई बात खो गई
    क्या हुआ जो
    पाँखुरी पे रात रो गई
        कि हर घड़ी उदास है
        फिर भी एक आस है
    कि लाल-लाल भोर की
    कि पंछियों के शोर की
तेरे-मेरे जागरण की रीत एक है
तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है


    क्या हुआ कली जो
    अनमनी-सी जी रही
    क्या हुआ जो धूप
    सब पराग पी रही
अभी खिली अभी झुकी-झुकी-सी ढल रही
    क्या हुआ हवा
    रुकी-रुकी सी चल रही
        कि हर कदम पे आग है
        फिर भी एक राग है
    कि साँझ के ढले-ढले
    कि एक नीड़ के तले
तेरी-मेरी मंजिलों की सीध एक है
तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है


    आ, कि तू, मैं
    दूरियों को साथ ले चलें
    आ, कि तू, मैं
    बंधनों को बांधकर चलें
क्या हुआ जो पंथ पर धुएँ का आवरण
    किन्तु कुछ भी हो
    कहीं रुके-थके नहीं लगन
        कि हर किसी ढलान पर
        कि हर किसी चढ़ान पर
    कि एक साँस एक डोर से
    कि एक साथ एक छोर से
तेरी-मेरी जिन्दगी की प्रीत एक है
तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है ::

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11. पीर कुछ ऐसी


पीर कुछ ऐसी
बरसी सारी रात.....
    भोर कुछ और सुहानी होकर निकली


    बहुत घुली
    घुल-घुल गहराई
    बदरी विरहा साँस की


    उलझ-उलझ
    पथ भूली गंगा
    सपनों के आकाश की


रही तड़पती
बिजुरी-सी आधी बात
    ऊषा कुछ और कहानी होकर निकली
पीर कुछ ऐसी
बरसी सारी रात
    भोर कुछ और.....


    बहुत झुरी
    झुर-झुर कर रोई
    मन की आस अभाव में


    अनजाने
    अनगिन तट देखे
    आँसू के तेज बहाव में,


सूनेपन में
कुछ अपना लगा प्रभात
    धूप कुछ और सलोनी होकर निकली


पीर कुछ ऐसी
बरसी सारी रात
    भोर कुछ और.....


    रात चली
    रोती-रोती
    इस धरती का सिंगार कर


    सातों स्वर
    ले आई किरणें
    कली-कली के द्वार पर
सहमी-सहमी
कुछ जगी हृदय की साध
    साँस कुछ और सयानी होकर निकली


पीर कुद ऐसी
बरसी सारी रात
    भोर कुछ और सुहानी होकर निकली ::

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12. मैंने नहीं कल ने बुलाया है !


    मैंने नहीं कल ने बुलाया है !
    ख़ामोशियों की छतें,
    आबनूसी किवाड़े घरों पर,
    आदमी-आदमी में दीवार है,
तुम्हें छैनियाँ लेकर बुलाया है !
मैंने नहीं कल ने बुलाया है !


    सीटियों से
    साँस भर कर भागते
    बाजार-मीलों दफ़्तरों को
    रात के मुर्दे,
    देखती ठण्डी पुतलियाँ-
    आदमी अजनबी
    आदमी के लिए
तुम्हें मन खोल कर मिलने बुलाया है !
मैंने नहीं कल ने बुलाया है !


    बल्ब की रोषनी
    शेड में बंद है,
    सिर्फ़ परछाई उतरती है
    बड़े फुटपाथ पर,
    ज़िन्दगी की ज़िल्द के
    ऐसे सफ़े तो पढ़ लिए
तुम्हें अगला सफ़ा पढ़ने बुलाया है !
मैंने नहीं कल ने बुलाया है ! ::

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13. शहर सो गया है!


शहर सो गया है!


    औज़ार से खेलते
    एक संसार के सोच को
    आर से पार तक बींधता
    एक तीखा सा
    बजता हुआ सायरन
    बस, गया है अभी


    और बोले बिना
    साख भर छापकर
    धूप को सांटता
    आकाशिया भी सरका अभी


    यूं घिसटता चले
    जैसे तन बोझ भर रह गया है !


शहर सो गया है!


    रची आँख ने दोपहर
    साँझ माँडी
    खिड़कियों, गली
    और माटी लिपे आँगन


    फ़क़त एक जबड़े से निकला
    धुआँ धो गया है !


शहर सो गया है!


    बैठा हुआ था बाजार में जो
    अभी शोर का संतरी
    उगे मौन के जंगलों में
    सहमा हुआ खो गया है!


शहर सो गया है!


    बुत रोशनी के
    सड़क के किनारे
    लटका दिये सूलियों पर
    अँधेरी अँगुलियों में
    स्वर रूँध गया है!


शहर सो गया है!


    आग-पानी के नद पार पर
    घास का एक बिस्तर
    बिछाया है उसने


    तमोलो-चमोलों चढ़ी
    काँच से झाँकती
    रोशनी को अँगूठा दिखा कर


    ओढ़ कर थकन की
    फटी-सी रजाई
    छाती में घुटने
    धँसा, सो गया है !


शहर सो गया है ! ::

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14. क्षण-क्षण की छैनी से


क्षण-क्षण की छैनी से
        काटो तो जानूँ!


    पसर गया है घेर शहर को
    भरमों का संगमूसा
    तीखे-तीखे शब्द सम्हाले
    जड़ें सुराखो तो जानूँ !


क्षण-क्षण की छैनी से.....


    फेंक गया है बरफ छतों से
    कोई मूरख मौसम
    पहले अपने ही आँगन से
    आग उठाओ तो जानूँ!
क्षण-क्षण की छैनी से.....


चौराहे पर प्रश्न चिह्नसी
    खड़ी भीड़ को
    अर्थ भरी आवाज लगाकर
    दिशा दिखाओ तो जानूँ !


क्षण-क्षण की छैनी से
    काटो तो जानूँ ! ::

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15. थाली भर धूप लिए


थाली भर धूप लिए
        बैठी अहीरन!
    सिरहाने लोरी सुन
    सोये पल जाग गए,
    अँजुरी भर दूध पिया
    बिन बोले भाग गए


उड़ी-उड़ी फूलों की गंध
        बाँधन में मगन!
थाली भर धूप लिए.....


    छाँहों की छोड़ गली
    सड़कों-चौराहों को,
    खेतों में हिलक रही
    बालों की बाँहों को


गूँज-गूँज डोरी से
    बाँधने की लगन!
थाली भर धूप लिए.....


    साथ देख रीझे है
    साँझ-सी सहेली,
    चाहों से भर दी है
    रात की हथेली


आंज लिए आँखों में
    उजले सगुन !
थाली भर धूप लिए
    बैठी अहीरन ! ::

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16. उतरी जो चाह अभी


उतरी जो चाह अभी
    पूरबी दुमहले से.....


    सोने के पाँव रखे
    चौक-छत-मुंडेरों पर
    पोरों से दस्तक दी
    बंद पड़ी ड्योढ़ी पर
    निंदियायी पलकों पर
    कुनमुनती गलियों
    सड़कों-फुटपाथों पर
उठ बैठे जितने सवाल
    सब बटोर ले गई मुहल्ले से!
उतरी जो चाह अभी
    पूरबी दुमहले से.....


    धरती पर आ उतरे
    टीन के आकाश नीचे,
    साँस-साँस पिघलाई
    आग की कढ़ाही में
    लोहे के साँचों पर
    आँख टिका, आँख झपक
    हिल-हिलते हाथों से
    पानी में ठार-ठार
    संकेतों-संकेतों-
आखर ही आखर
    ढल रहे धड़ल्ले से!
उतरी जो चाह अभी
    पूरबी दुमहले से.....


    हीरों से हरियाये खेतों में
    हुम-हुम कर हिलके हैं
    हाथ-हाथ हाँसिये
    हो-हो की आवाजें
    टिच-टिचती टिचकोरी
    हेर रही बैलों को
    ऐसा यह दूर दरसन
    देख-देख, रीझ-रीझ
    ठहरी है दोपहरी मेड़ों पर
    वे भी तो थम-थमते
    धूप से धो हाथ-मुँह
    एक पंगत हो जुड़े हैं
घर से ढाणी
    घर-ढाणी के थल्ले से!
उतरी जो चाह अभी
    पूरबी दुमहले से.....


    खाली हुई पेट की
    कुई के आगे आ गया है
    प्याज-छाछ-सोगरा
    मुट्ठी में मसोस कर
    मसक लिया है थाली में,
    एक बखत पांण दे
    उठ लिए हैं कमधजी
    बे उधर कि ये इधर
घास-घास, फूस-फूस
    फटक हैं पल्ले से
उतरी जो चाह अभी
    पूरबी दुमहले से! ::


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भाग-4




   

17. कोलाहल के आँगन


कोलाहल के आँगन
सन्नाटा रख गई हवा
    दिन ढलते-ढलते.....
    कोलाहल के आँगन!


    दो छते कंगूरे पर
    दूध का कटोरा था
धुँधवाती चिमनी में
उलटा गई हवा
        दिन ढलते-ढलते.....
        कोलाहल के आँगन!


    घर लौटे लोहे से बतियाते
    प्रश्नों के कारीगर
आतुरती ड्योढ़ी पर
सांकल जड़ गई हवा
    दिन ढलते-ढलते.....
    कोलाहल के आँगन!


    कुंदनिया दुनिया से
    झीलती हक़ीक़त की
बड़ी-बड़ी आँखों को
अँसुवा गई हवा
    दिन ढलते-ढलते.....
    कोलाहल के आँगन!


    हरफ़ सब रसोई में
    भीड़ किए ताप रहे,
क्षण के क्षण चूल्हे में
अगिया गई हवा
        दिन ढलते-ढलते
        कोलाहल के आँगन


सन्नाटा रख गई हवा
        दिन ढलते-ढलते.....
        कोलाहल के आँगन! ::

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18. आए जब चौराहे


आए जब चौराहे
    आग़ाज़ कहाए हैं
लम्हात चले जितने
    परवाज़ कहाए हैं


    हद तोड़ अँधेरे जब
    आँखों तक धँस आए,
जीने के इरादों ने
    जंगल सुलगाए हैं
आए जब चौराहे.....


    जिनको दी अगुवाई
    चढ़ गए कलेजे पर,
लोगों ने गरेबां से
    वे लोग उठाए हैं
आए जब चौराहे.....


    बंदूक ने बंद किया
    जब-जब भी जुबानों को
जज्बात ने हरफ़ों के
    सरबाज उठाए हैं
आए जब चौराहे.....


    गुम्बद की खिड़की से
    आदमी नहीं दिखता,
पाताल उलीचे हैं
    ये शहर बनाए हैं
आए जब चौराहे.....


    जब राज चला केवल
    कुछ खास घरानों का,
काग़ज़ के इशारे पर
    दरबार ढहाए हैं
आए जब चौराहे.....


    मेहनत खा, सपने खा
    चिमनियाँ धुआँ थूकें
तन पर बीमारी के
    पैबंद लगाए हैं
आए जब चौराहे.....


दानिशमंदो बोलो
    ये दौर अभी कितना
अपने ही धीरज से
    हर साँस अघाए हैं
आए जब चौराहे.....


    न हरीश करे लेकिन
    अब ये तो करेंगे ही
झुलसे हुए लोगों ने
    अंदाज़ दिखाए हैं,P.
आए जब चौराहे, आग़ाज़ कहाए हैं
लम्हात चले जितने, परवाज़ कहाए हैं ::

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19. प्यास सीमाहीन सागर


प्यास सीमाहीन सागर
    अंजुरी भरले कोई!


    लहरें टकरती पीर की
    मौनी किनारों से,
    झुलसी हुई ये लौटती
    तपते उतारों से


शेष सुधियाँ फेन जैसी
    आँगने रखले कोई!
प्यास सीमाहीन सागर.....


    दूरियों से दूरियों तक
    सिर्फ़ टीसें गूँजती,
    और बहकी-सी सिहरनें
    द्वार-ड्योढ़ी घूमती


सपन तारों से अनींदे
    आँख में भरले कोई!
प्यास सीमाहीन सागर.....


    आस जागेगी अलस कर
    रात जो करवट भरे,
    साँस पीलेगी स्वरों को
    भोर जो आहट करे


साध पूरब की किरणसी
    बाँह में भरले कोई!


प्यास सीमाहीन सागर
    अंजुरी भरले कोई! ::

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20. उम्र सारी


उम्र सारी इस बयाबां में गुजारी यारो!
सर्द गुमसुम ही रहा
हर साँस पे तारी यारो !


    कोई दुनिया न बने
    रंगे-लहू के खयाल,
    गोया रेत ही पर
तस्वीर उतारी यारो!
उम्र सारी.....


    देखा ही किए झील
    वो समंदर, वो पहाड़,
    अपनी हर आँख
सियाही ने बुहारी यारो !
उम्र सारी.....


    जहाँ सड़क, गली
    आँगन जैसे बाज़ार चले,
    न चले, अपनी न चले
यहां असआरी यारो!
उम्र सारी.....


    रहबरों तक गई
    वो तलाश रहे साथ, सफ़र
    उसकी आबरू
हर बार उतारी यारो !
उम्र सारी.....


    हाँ, निढ़ाल तो हैं
    पर कोई चलना तो कहे,
    मन के पाँवों की
बाकी अभी बारी यारो !
उम्र सारी.....


    उठके डूबे है कहीं
    अपनी आवाज़ यहाँ
    किसी आग़ाज़ से ही
सिलसिला जारी यारो !
उम्र सारी.....


    अब जो बदलो तो कहीं
    हो, गुनहग़ार हरीश
    वही रंगत, वे ही दौर,
वही यारी यारो !


उम्र सारी इस बयाबां में गुजारी यारो !
सर्द गुम-सुम ही रहा
हर साँस पै तारी यारो ! ::

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21. टूटी ग़ज़ल न गा पाएँगे !


    टूटी ग़ज़ल न गा पाएँगे !


    साँसों का इतना सा माने
    स्वरों-स्वरों
    मौसम-दर-मौसम
    हरफ़-हरफ़ गुंजन-दर-गुंजन
        हवा हदें ही बाँध गई है
सन्नाटा न स्वरा पाएंगे !
टूटी ग़ज़ल न गा पाएंगे !


    आँखों का इतना-सा माने
    खुले-खुले
    चौखट-दर-चौखट
    सुर्ख-सुर्ख बस्ती-दर-बस्ती
        आसमान उल्टा उतरा है
अँधियारा न आँज पाएँगे !
टूटी ग़ज़ल न गा पाएँगे !


    चलने का इतना-सा माने
    बाँह-बाँह
    घाटी-दर-घाटी
    पाँव-पाँव दूरी-दर-दूरी
        काट गए काफ़िले रास्ता
यह ठहराव न जी पाएँगे !
टूटी ग़ज़ल न गा पाएँगे ! ::

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22. कल से क्या


कल से क्या
आज से गवाही ले, मितवा !


    घाटी में आँगन है
    आँगन में बाँहें
    बाँहती दहरिया की
कल से क्या
आज से गवाही ले, मितवा !


    आँखों में झीले हैं
    झीलों में रंग
    रंगवती हलचल की
कल से क्या
आज से गवाही ले, मितवा !
    माटी में सांसें हैं
    सांसों के होठ
    बोलती पखावज की
कल से क्या
आज से गवाही ले, मितवा !


    दूरी पर चौराहे
    चौराहे खुभते हैं
    चरवाहे पाँवों की
कल से क्या
आज से गवाही ले, मितवा


    रात एक पाटी है
    पहर-पहर लिखता है
    उज़लती हक़ीक़त बड़ी
कल से क्या
आज से गवाही ले, मितवा !


घाटी में आँगन है,
आँगन में बांहें
बाँहती दहरिया की
    कल से क्या
    आज से गवाही ले, मितवा ! ::

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23. ओ दिशा ! ओ दिशा !


    ओ दिशा ! ओ दिशा !
    कब से खड़े
    रास्ते घेर घर
    संशयों के अँधेरे
        सहमी हुई साँझ ड्योढ़ी खड़ी
    ठहरे हुए ये चरण
    सिलसिले हो उठें
    संकल्प की हथेली पर
    दृष्टि का सूर्य रखले
ओ, दिशा ! ओ, दिशा !


    मौन के साँप
    कुण्डली लगाए हुए
हर एक चेहरा    
        हर दूसरे से अलग जी रहा
साँस बजती नहीं,
आँख से आँख मिलती नहीं
सारे शहर में
कहीं कुछ धड़कता नहीं,
        चोंच भर-भर बुनें,
        षोर का आसमां
        स्वरों के पखेरू उड़ा
ओ, दिशा ! ओ, दिशा ! ::

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24. आ, सवाल चुगें, धूपाएं.....आ !


आ, सवाल चुगें, धूपाएं.....आ !


    दीवारों पर आ बैठी
    यादों की सीलन
नीचे से ऊपर तक
        रंग खरोंचे
    कुतर न जाए
माटी का मरमरी कलेजा
आ, सवाल चुगें, धूपाएं.....आ !


    आँख लगाए है
    पिछवाड़े पर सन्नाटा
जोड़-जोड़ पर नेज़े खोभे
    सेंधन लग जाए
    हरफ़ों के घर में
आ, फ़सीलों से गूंजें.....पहराएं !
आ, सवाल चुगें, धूपाएं.....आ !


    पसर गया है
    बीच सड़क भूखा चौराहा
    उझक-उझक मुँह खोले
        भरम निपोरे


    निगल न जाए
    यह तलाश की कामधेनु को
आ, वामन होलें, चल जाएं.....आ !
आ, सवाल चुगें, अगियाएं.....आ ! ::

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25. ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए.....


    ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए.....
    कुनमुनते तांबे की सुइयाँ
    खुभ-खुभ आंख उघाड़े
    रात ठरी मटकी उलटाकर
    ठठरी देह पखारे
        बिना नाप के सिये तक़ाज़े
    सारा घर पहनाए


ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए.....


    साँसों की पंखी झलवाए
    रूठी हुई अंगीठी,
    मनवा पिघल झरे आटे में
    पतली करदे पीठी
        सिसकी-सीटी भरे टिफिन में
    बैरागी सी जाए
ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए.....


    पहिये, पाँव उठाए सड़कें
    होड़ लगाती भागें
    ठण्डे दो मालों चढ़ जाने
    रखे नसैनी आगे,
        दो-राहों-चौराहों मिलना
    टकरा कर अलगाए


ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए.....


    सूरज रख जाए पिंजरे में
    जीवट के कारीगर,
    रचा, घड़ा सब बाँध धूप में
    ले जाए बाजीगर,
        तन के ठेले पर राशन की
    थकन उठा कर लाए


ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए..... ::

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26. सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े


सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े
    बजती हुई सुई !


    सीलन और धुएँ के खेतों
    दिन भर रुई चुनें
    सूजी हुई आँख के सपने
    रातों सूत बुनें
        आँगन के उठने से पहले
        रचदे एक कमीज रसोई,


एक तलाश पहन कर भागे
        किरणें छुई-मुई.....
सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े
        बजती हुई सुई !


    धरती भर कर
    चढ़े तगारी
    बाँस-बाँस आकाश,
    फरनस को अगियाया रखती
    साँसें दे-दे घास


सूरज की साखी में बंटते
अंगुली जितने आज और कल,


बोले कोई उम्र अगर तो
        तीबे नई सुई
        बजती हुई सुई


सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े
        बजती हुई सुई ! ::

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27. शहरीले जंगल में सांसों


शहरीले जंगल में सांसें
हलचल रचती जाएँ.....साँसें !


    कफ़न ओस का
    फाड़ बीच से
    दरके हुए क्षितिज उड़ जाएँ
    छलकी सोनलिया कठरी से
    आँखों के घड़िये भर लाएँ
चेहरों पर ठर गई रात की
राख पोंछती जाएँ, सांसें.....
शहरीले जंगल में सांसें.....


    पथरीले बरगद के साये
    घास-बाँस के आकाशों पर,
    घात लगाये
    छुपा अहेरी
    लीलटांस से विश्वासों पर
पगडण्डी पर पहिये कसकर
सड़कों बिछती जाएँ, सांसें.....
शहरीले जंगल में सांसें.....


    सर पर बाँध
    धुएँ की टोपी
    फरनस में कोयले हँसाएँ
    टीन-काँच से तपी धूप में
    भीगी-भीगी देह छाँवाएँ
पानी, आगुन, आगुन, पानी
तन-तन बहती जाएँ सांसें.....
शहरीले जंगल में सांसें.....


    लोहे के बावळिये काँटे
    जितने बिखरें
    रोज़ बुहारें,
    मन में बहुरूपी बीहड़ के
    एक-एक कर अक्स उतारें
खिड़की बैठे कम्प्यूटर पर
तलपट लिखती जाएँ सांसें.....
शहरीले जंगल में सांसें.....


    हाथ झूलती
    हुई रसोई
    बाजारों के फेरे देती
    भावों की बिणजारिन तकड़ी
    जेबें ले पुड़ियाँ दे देती
सुबह-शाम खाली बांबी में
जीवट भरती जाएँ, सांसें
शहरीले जंगल में सांसें
हलचल रचती जाएँ सांसें..... ::


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भाग-5




   

28. कोई एक हवा ही शायद


कोई एक हवा ही शायद
        इस चौराहे रोक गई है


    फिर-फिर फिरे गई हैं आंखें
    रेत बिछी सी
    पलकों से बूंदें अंवेर कर
    रखी रची सी,
हिलक-हिलक कर रहीं खोजतीं
    तट पर जैसे एक समंदर
बरसों से प्यासी थी शायद
    धूप चाटती सोख गई हैं


कोई एक हवा ही शायद
    इस चौराहे रोक गई है


    हुए पखावज रहे बुलाते
    गूंगे जंगल
    बज-बजती साँस हुई है
    राग बिलावल


भूल गया झलमलता सपना
    झूले जैसे एक रोशनी
बरसों से बोझिल थी शायद
    रात अँधेरा झोंक गई है


कोई एक हवा ही शायद
    इस चौराहे रोक गई है!


    थप-थप पाँवों ने थापी है
    सड़क दूब सी
    रंगती गई पुरुरवा दूर को
    दिशा उर्वशी
माप गई आकाश एषणा
    जैसे एक सफेद कबूतर
होड़ बाज़ ही होकर शायद
    डैने खोल दबोच गई है !


कोई एक हवा ही शायद
    इस चौराहे रोक गई है ! ::

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29. चले कहाँ से


चले कहाँ से
गए कहाँ तक
        याद नहीं है.....


    आ बैठा छत ले सारंगी
    बज-बजता मन-सुगना बोला
    उतरी दिशा
    लिए आँगन में
    सिया हुआ किरणों का चोला


पहन लिया था
या पहनाया
    याद नहीं है.....
चले कहाँ से.....


    झुल-झुल सीढ़ी ने हाथों से
    पाँवों नीचे सड़क बिछाई,
    दूध झरी
    बाछों ने खिल-खिल
    थामी बाँह, करी अगुआई


रेत रची कब
हुई बिवाई
    याद नहीं है.....
चले कहाँ से.....


    रासें खींच रोशनी संवटी,
    पीठ दिये रथ, भागे घोड़े
    उग आए
    आँखों के आगे
    मटियल, स्याह, धुँओं के धोरे,


सूरज लाया
या खुद पहुँचे
    याद नहीं है.....
चले कहाँ से.....


    रिस-रिस, झर-झर
    ठर-ठर गुम-सुम
    झील हो गया है घाटी में
    हलचलती बस्ती में केवल
    एक अकेलापन पांती में


दिया गया या
लिया शोर से
    याद नहीं है.....


चले कहाँ से, गए कहाँ तक
याद नहीं है ! ::

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30. पीट रहा मन बन्द किवाड़े !


पीट रहा मन बन्द किवाड़े !


    देखी ही होगी आँखों ने
    यहीं-यहीं ड्योढ़ी खुल-खुलती
    प्रश्नातुर ठहरी आहट से
    बतियायी होगी सुगबुगती
        बिछा, बिछाये होंगे आखर
फिर क्यों झरझर झरे स्वरों ने
    सन्नाटों के भरम उघाड़े ?
पीट रहा मन बन्द किवाड़े !


    समझ लिया होगा पाँखों ने
    आसमान ही इस आँगन को
    बरस दिया होगा आँखों ने
    बरसों कड़वाये सावन को,
        छींट लिया होगा दुखता कुछ
फिर क्या हाथों से झिटका कर
    रंग हुआ दाग़ीना झाड़े ?
पीट रहा मन बन्द किवाड़े !


    प्यास जनम की बोली होगी
    आँचल है तो फिर दुधवाये
    ठुनकी बैठ गई होगी ज़िद
    अँगुली है तो थमा चलाये
        चौक तलाश उतरली होगी,
फिर क्यों अपनी-सी संज्ञा ने
    सर्वनाम हो जड़े किवाड़े ?
पीट रहा मन बंद किवाड़े ! ::

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31. बता फिर क्या किया जाए


    बता फिर क्या किया जाए


    सड़क फुटपाथ हो जाए
    गली की बांह मिल जाए
सफ़र को क्या कहा जाए
        बता फिर क्या किया जाए


    नज़र दूरी बचा जाए
    लिखावट को मिटा जाए
क्या इरादे को कहा जाए
        बता फिर क्या किया जाए


    स्वरों से छन्द अलगाएँ
    गले में मौन भर जाएँ
ग़ज़ल को क्या कहा जाए
        बता फिर क्या किया जाए


    उजाला स्याह हो जाए
    समंदर बर्फ हो जाए
कहां क्या-क्या बदल जाए
        बता फिर क्या किया जाए


    आदमी चेहरे पहन आए
    लहू का रंग उतर जाए
किसे क्या-क्या कहा जाए
        बता फिर क्या किया जाए ::

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32. सड़क बीच चलने वालों से


सड़क बीच चलने वालों से
    क्या पूछूँ.....क्या पूछूँ ?


    किस तरह उठा करती है
    सुबह चिमनियों से
    ड्योढ़ी-ड्योढ़ी
    किस तरह दस्तकें देते हैं
    सायरन.....सीटियां.....क्या पूछूँ ?
सड़क बीच चलनेवालों से
    क्या पूछूँ.....क्या पूछूँ ?


    कब कोलतार को
    आँच लगी ?
    किस-किसने जी
    किस-किस तरह सियाही ?
    पाँवों की तस्वीर बनी
    कितनी दूरी के
    बड़े कैनवास पर.....क्या पूछूँ ?
सड़क बीच चलने वालों से
    क्या पूछूँ.....क्या पूछूँ ?


    कैसे गुजरे हैं दिन
    टीनशेड की दुनिया के ?
    किस तरह भागती भीड़
    हाँफती फाटक से ?
    किस तरह जला चूल्हा ?
    क्या खाया-पिया ?
    किस तरह उतारी रात
    घास-फूस की छत पर.....क्या पूछूँ ?
    सड़क बीच चलने वालों से
    क्या पूछूँ.....क्या पूछूँ ?


पूछूँ उनसे
चलते-चलते जो
ठहर गए दोराहों पर


    पूछूँ उनसे
    किस लिए चले वे
    बीच छोड़, फुटपाथों पर
उस-उस दूरी के
आस-पास ही
अगुवाने को
खड़े हुए थे गलियारे


    उनकी वामनिया मनुहारों पर
    किस तरह
    कतारें टूट गई.....क्या पूछूँ


सड़क बीच चलने वालों से
    क्या पूछूँ.....क्या पूछूँ ? ::

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33. देखे मुझे हँसे सन्नाटा !


देखे मुझे हँसे सन्नाटा !


निरे अकेले बैठे-बैठे
बहुत दूर की
कई-कई आवाज़ें लगें मुझे
अपने तक आतीं,
अगुवाने को उठूँ कि देखूँ
सड़क ले गई उन्हें
झोंक कर मुझ पर सिर्फ गुबार
        हँसे सन्नाटा !
    देखे मुझे हँसे सन्नाटा !


रोज ऊँघते गूँग लगे है फिर भी
मुझसे केवल मुझसे ही बतियाने
कोलाहल आँगन में आ बिखरा है,
हँसती आँखें फेर बुहारूँ,
चुग-चुग जोडूँ आखर-आखर
बने न कोई दो हरफों का बोल
        हँसे सन्नाटा !
    देखे मुझे हँसे सन्नाटा !


कई-कई बार
लगे सपने में
मेरे ही सिरहाने बैठा
लोरी झलझलता कोई सम्बोधन
दुलरा-दुलरा मुझे जगाए
इस चूनर, आँचल से हुमकूँ
फैंकू नींद उघाड़
        दिखे सन्नाटा !
    देखे मुझे हँसे सन्नाटा ! ::

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34. इसे मत छेड़ पसर जाएगी


इसे मत छेड़ पसर जाएगी
रेत है रेत बिफर जाएगी


कुछ नहीं प्यास का समंदर है,
जिन्दगी पाँव-पाँव जाएगी


धूप उफने है इस कलेजे पर
हाथ मत डाल ये जलाएगी


इसने निगले हैं कई लस्कर
ये कई और निगल जाएगी


न छलावे दिखा तू पानी के
जमीं-आकाश तोड़ लाएगी,


उठी गाँवों से ये ख़म खाकर
एक आँधी सी शहर जाएगी


आँख की किरकिरी नहीं है ये
झाँकलो झील नजर आएगी


सुबह बीजी है लड़के मौसम से
सींच कर साँस दिन उगाएगी


काँच अब क्या हरीश मांजे है
रोशनी रेत में नहाएगी


इसे मत छेड़ पसर जाएगी
रेत है रेत बिफर जाएगी ::

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35. रेत में नहाया है मन !


रेत में नहाया है मन !
    आग ऊपर से, आँच नीचे से
    वो धुँआए कभी, झलमलाती जगे
        वो पिघलती रहे, बुदबुदाती बहे
        इन तटों पर कभी धार के बीच में
डूब-डूब तिर आया है मन
रेत में नहाया है मन !


    घास सपनों सी, बेल अपनों सी
    साँस के सूत में सात सुर गूँथ कर
        भैरवी में कभी, साध केदारा
        गूंगी घाटी में, सूने धारों पर
एक आसन बिछाया है मन
रेत में नहाया है मन !


    आँधियाँ काँख में, आसमाँ आँख में
    धूप की पगरखी, ताँबई, अंगरखी
        होठ आखर रचे, शोर जैसे मचे
        देख हिरनी लजी साथ चलने सजी
इस दूर तक निभाया है मन
रेत में नहाया है मन ! ::

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36. बिणजारे आकाश ! करले,


बिणजारे आकाश ! करले,
जितनी भी कर सके कमाई !


    सोने के अवसर के ऊपर
    मिला तुझे अनमोल महूरत


बिना तले की बांबी वाला
साथ हुआ है प्यासा मौसम


    पहन होकड़े लूट लुटेरे
    यह मेरा अनखूट ख़ज़ाना


पड़ा दिगम्बर सात समंदों
कितनी ही तन्वंगी नदियाँ


    शिखरों-घाटी फाँद उतरते
    कल-कल करते झरनों का जल


चूके मत चौहान कि घर में
घड़े-मटकियाँ जितनी भी हैं


    अपनी सत-हथिया किरणों को
    तप-तप तपते थमा तामड़े


कहदे साँसों-साँस उलीचें
बह-बह बहती यह नीलाभा


    भरे-भरे सारे ही बर्तन
    रखता जा अपने तलघर में


जड़दे लोहे के किवाड़ पर
बिन चाबी के सातों ताले


    दसियों, बीसों बरसों तक के
    करले जो कर सके जतन तू

,
छींप न पाए तेरी मेड़ी
धरती जादों की परछाई


बिणजारे आकाश करले,
जितनी भी कर सके कमाई !


    चम-चमती आँखें उघाड़कर
    देख, देखता, गोखे भी जा


    मेरे एक कलेजे के ही
    इस कोने पर अड़ा-अड़ा-सा


    हर क्षण उठे पछाटें खाए
    यह है अड़ियल अरबी सागर


    धोके है जिसको गंगाजी
    वह आमार बांगला खाड़ी


    चढ़-उतराती साँसों ऊपर
    लोहे के मस्तूल फरफरें


    बंसी-जालों वाला मानुष
    मर, जन्में पीढ़ी-दर-पीढ़ी


    निरे लाड से इसे पुकारूँ
    पूरब का वासी हिंदोदध


    तू भी देख न पाया आँगन
    वह मेरा ही शान्त, प्रशान्त


    सोया-सोया लगे तुझे जो
    वह त्राटक साधक कश्यपजी


    हो जाए है तन कुंदनिया
    वह कुंकुमिया लाल समंद


    अनहद नाद किए ही जाए
    कामरूप में ब्रह्मपुत्र जी


पंचोली पंजाबन बैठी
आंजे आँखों में नीलाई


बिणजारे आकाश ! करले,
जितनी भी कर सके कमाई !


    काले-पीले चेहरों वाले
    वर्तुल चौकीदार बिठाले


    कह, कानों में धूपटिये से
    और भरे ईंधन अलाव में


    कह, उसकी लपती लाटों से
    मेरी बळत अजानी उससे


    भक-भक झोंसे जाए लम्पट
    मेरे हरियाये खेतों को


    साझा कर उंचास पवन से
    भल माटी को रेत बनादे


    सातों जीभों को सौ करले
    पी-पी, चाट खुरचता जाए


    सुन, मेरे ओ अथ के साथी !
    मेरी इति ना देख सकेगा


    उससे पूछ, याद आ जाए
    एक समंदर लहराता था


    कैसे छोड़ गया मुझको वह
    मैंने कभी न पूछा उससे


    अब खारा, मीठा, बर्फीला
    जितना भी है, जैसा भी है


    कभी तुम्हारा दिया हुआ ही
    अब यह केवल मेरा ही है


    इससे अपनी कूख संजोई
    प्राणों से पोशा है इसको


    इसका दूजा रूप रचा जो
    ले, मेरी आँखों में देख !


    झील, झीलता झीले है ना ?
    ले, तू, इसमें खुद को देख !


    मानवती आँखों का पानी
    या फिर पानी वाली माटी


अगर एक भी सूखे तुझसे
मैंने अपनी जात गंवाई !


बिणजारे आकाश ! करले,
जितनी भी कर सके कमाई ? ::

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37. आँखों भर की हदवाले आकाश !


आँखों भर की हदवाले आकाश !
एक-एक संवत्सर ही क्यों
कई-कई अनुवत्सर तक भी
रख पानी का
पत तू अपने पास !
आँखों भर की हदवाले आकाश !


चल-अचलों को रच-रच रचती
सदा गर्भिणी धाय धरा को
नहीं रही है
केवल तेरी आस
आँखों भर की हदवाले आकाश !


देख रे ओ नागे ओगतिये !
सूखे आँचल सात समंदर,
पहले तू ही
पांणले अपनी प्यास,
आँखों भर की हदवाले आकाश !


कभी-कभी रिमझिम बरसे जो
वह मेरी माटी माँ का ऋण
मत लौटा तू
रखले अपने पास
आँखों भर की हदवाले आकाश !


आँख खोलने से पहले ही
मुझे पिलाई गई एषणा
वही बुने है
कई-कई आकाश
आँखों भर की हदवाले आकाश !


इसके गहन क्रोड़ में अमरत
जीवट भरे कुम्भ जीवन का
अन्तस-बाहर
दोनों हरियल टांस


आँखों भर की हदवाले आकाश ! ::

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38. सड़कवासी राम !


सड़कवासी राम !
    न तेरा था कभी
    न तेरा है कहीं
रास्तों-दर-रास्तों पर
    पाँव के छापे लगाते ओ, अहेरी !
खोल कर मन के किवाड़े सुन,
    सुन कि सपने की
सपने की किसी
सम्भावना तक में नहीं
    तेरा अयोध्या धाम.....
सड़कवासी राम !


    सोच के सिर मौर
    ये दसियों दसानन
और लोहे की ये लंकाएँ
    कहाँ है क़ैद तेरी भूमिजा
खोजता थक देखता ही जा भले तू
    कौन देखेगा,
    सुनेगा कौन तुझको ?
थूक फिर तू क्यों बिलोये राम.....
सड़कवासी राम !


    इस सदी के ये स्वयम्भू
    एक रंग-कूंची छुआकर
आल्मारी में रखें दिन
    और चिमनी से निकाले शाम.....
सड़कवासी राम !


    पोर घिस-घिस क्या गिने
    चौदह बरस तू
गिन सके तो
कल्प साँसों के गिने जा
        गिन कि कितने
        काट कर फैंके गए हैं
एषणाओं के जटायु ही जटायु
    और कोई भी नहीं
    संकल्प का सौमित्र
        अपनी धड़कनों के साथ
देख, वामन सी
    बड़ी यह जिन्दगी !
करदी गई है इस शहर के
    जंगलों के नाम.....


सड़कवासी राम ! ::


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भाग-6




   

39. केवल घर, घरवाला खोजें.....


केवल घर, घरवाला खोजें.....
चलने का पहला दिन,
और आज का यह दिन,
और नहीं कुछ
    केवल घर, घरवाला खोजें.....


इसी गरज की मार कि जमादार को
पहली चौकी दर्ज़ कराई
नाम, वल्दियत, उम्र कि जंगल-
है तो शहरीला ही,
    खुली हुई ड्योढ़ी में आंगन,
    आँगन के पसवाड़े चूल्हा,
        चकले-चुड़ले की संगत पर
        कांसी की थाली पर बजती
        परभाती-संझवाती पर तो रीझेंगे ही, पर-
चलने का पहला दिन.....


सिले होठ सी
लगी नाम की
एक-एक तख्ती के पीछे
    केवल जड़े किवाड़े देखें-
चलने का पहला दिन.....


दीवारों ही दीवारों के बीहड़ में भी
रस्ते धोती धूप कहीं तो दिख जाएगी,
सूरज के आगे चंदोवे ताने
चौक-गली में रचते ही होंगे कारीगर, पर-
चलने का पहला दिन.....


धोये है आकाश चिमनियाँ
खड़ा आदमी पंच करे है-
अपना होना,
    लोहे के दड़बों में
    केवल अँधी होड़ सरीखी
    भाग रही सड़कों को देखें-
चलने का पहला दिन.....


गुमसुम के पर्वत के नीचे दब-चिंथ जीती
बतियाने की केवल
एक बळत सुन लेने
    इतने अपनों बीच परायी
    एक अकेली
    दुख-दुख कर सूजी आँखों में
    सारथ हो चलने की
    एक कौंध पा लेने-
चलने का पहला दिन.....


दिनों-दुखों की
जोड़ भूल कर,
दूरी को आँजे आँखों में
एक बड़ी दुनिया हो गए शहर में
    और नहीं कुछ
    अपनापा केवल अपनापा खोजें-


चलने का पहला दिन,
और आज का यह दिन
और नहीं कुछ
    केवल घर, घरवाला खोजें..... ::

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40. जो पहले अपना घर फूंके,


जो पहले अपना घर फूंके,
फिर धर-मजलां चलना चाहे
    उसको जनपथ की मनुहारें !


    जनपथ ऐसा ऊबड़-खाबड़
    बँधे न फुटपाथों की हद में


    छाया भी लेवे तो केवल
    इस नागी, नीली छतरी की


    इसकी सीध न कटे कभी भी
    दोराहे-चौराह तिराहे


    दूरी तो बस इतनी भर ही
    उतर मिले आकाश धरा से


    साखी सूरज टिमटिम रातें
    घट-बढ़-घटते चंदरमाजी


    पग-पग पर बांवळिये-बूझे
    फिर भी तन से, मन से चाले


    उन पाँवों सूखी माटी पर
    रच जाती गीली पगडण्डी
    देखनहारे उसे निहारें
जो पहले अपना घर फूंके,
फिर धर-मजलां चलना चाहे
        उसको जनपथ की मनुहारें !


    इस चौगान चलावो रतना
    मंडती गई राम की गाथा


    एक गवाले के कंठो से
    इस पथ ही गूँजी थी गीता


    जरा, मरण के दुःख देखे तो
    साँस-साँस से करुणा बाँटी


    हिंसा की सुरसा के आगे
    खड़ा हो गया एक दिगम्बर


    पाथर पूजे हरी मिले तो
    पर्वत पूजूँ कहदे कोई


    धर्मग्रन्थ फैंको समन्दर में
    पहले मनु में मनु को देखो


    जे केऊ डाक सुनेना तेरी
    कवि गुरु बोले चलो एकला


    यूँ चल देने वाले ही तो
    पड़ती छाई झाड़-झूड़ते
        एक रंग की राह उघाड़ें


जो पहले अपना घर फूंके
फिर धर-मजलां चलना चाहे
        उसको जनपथ की मनुहारें ! ::

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41. हद, बेहद दोनों लांघे जो !


    हद, बेहद दोनों लांघे जो !


    एकल मैं बज-बजता रहता
    थापे कोई फटी पखावज
    इसका इतना आगल-पीछल
    रीझे माया, सीझे काया


देखा चाहे सूरदास जो
इस हद में भी दिख-दिख जाएं-
मीड़, मुरकियों की पतवाले
निरे मलंगे अद्भुत विस्मय !


    ऐसों से बताये वो ही
    गांठे सांकल बांवळियों की
    इस हदमाते कोरे मैं को
    कीकर के खूँटे बाँधे जो !
हद, बेहद दोनों लांघे जो !


    आगे बेहद का सन्नाटा,
    खुद से बोल सुनो खुद को ही
    यहाँ न सूरज पलकें झपके
    रात न पल भर आँखें मूँदे
धाड़े तन सी हवा फिरे है
जहाँ भरी जाए हैं साँसें,
ऐसे में ही गया एक दिन
यम की ड्योढ़ी पर नचिकेता
    एक बळत के पेटे लेली
    सात तलों की एकल चाबी
    यह चाबी लेले फिर कोई
    ऐसा ही कुद हठ साधे जो !
हद-बेहद दोनों लांघे जो !


    बेहद की कोसा के उठते
    दीखन लागे वह उजियारा
    जिसका आदि न जाने कोई
    इति आगोतर से भी आगे


यह रचना का पहला आँगन
उसका दूजा नाम संसरण
प्राण यही, विज्ञान यही है


    रचे इसी में अनगिन सूरज
    इस अनहद में नाद गूँजते
    नभ-जल-थल चारी सृष्टि के
    हो जाए है वही ममेतर
    हद-बेहद दोनों रागे जो !


हद, बेहद दोनों लाँघे जो ! ::

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42. हदें नहीं होती जनपथ की


हदें नहीं होती जनपथ की
वह तो बस लाँघे ही जाए.....
    एकल सीध चले चौगानों
    चाहे जहाँ ठिकाना रचले


    अपनी मरजी के औघड़ को
    रोका चाहे कोई दम्भी


    चिरता जाए दो फाँकों में
    ज्यों जहाज़, दरिया का पानी


इससे कट कर बने गली ही
कहदे कोई भले राजपथ


इससे दस पग भर ही आगे
दिख जाए है ऊभी पाई ।


आर-पारती दिखे कभी तो
वह भी तो कोरा पिछवाड़ा


    इन दो छोरों बीच बनी है
    दीवारों की भूल भूलैया


    इनसे जुड़-जुड़कर जड़ जाएँ
    भीम पिरालें, हाथी पोलें


    ये गढ़-कोटे ही कहलाए
    अब ‘तिमूरती’ या ‘दस नम्बर’


इनमें सूरज घुसे पूछ कर,
पहरेदार हवा के ऊपर,


खास मुनादी फिरे घूमती
कोसों दूर रहे कोलाहल


ऐसे अजब घरों में जी-जी
आखिर मरें बिलों में जाकर


    जो इतना-सा रहा राजपथ
    उसकी रही यही भर गाथा


    आँखों वाले सूरदास जी
    कुछ तो सीखें इस बीती से


    पोल नहीं तो खिड़क खोल कर
    अरू-भरू होलें जो पल भर
        दिख जाए वह अमर चलारू
        चाले अपना जनपथ साधे !


    हदें नहीं होती जनपथ की
    वह तो बस लाँघे ही लाँघे !


जनपथ जाने तुम वो ही हो
सोच वही, आदत भी वो ही


यह तो अपने अथ जैसा ही
तुम ही चोला बदला करते


लोकराज का जाप-जापते
करो राजपथ पर बटमारी
    इसका नाभिकुंड गहरा है
    सुनो न समझो, गूँजे ही है


    लोकराज कत्तई नहीं वह
    देह धँसे कुर्सी में जाकर


    राज नहीं है काग़ज़ ऊपर
    एक हाथ से चिड़ी बिठाना
राज नहीं आपात काल भी
किसी हरी का नहीं की रतन
विज्ञानी जन सुन लेता है
यन्त्रों तक की कानाफूसी
‘रा’ रचता है कौन कहाँ पर
क्यों छपता है ‘राम’ ईंट पर
    सजवाते रहते आँगन में
    पाँचे बरस चुनावी मेला


    झप-दिपते, झप-दिपते में यह
    खुद को देखे, तुझको देखे


    भरी जेब से देखे जाते
    झोलीवाला पोंछा, पुरजा
कल तक जो केवल चीजें थी
आदमकद हो गई आज वे
चार दशक की पड़ी सामने
संसद में सपनों की कतरन
अब तो ये केवल दरजी हो
अपनी कैंची, सूई, धागा
    लो अब तुम ही देखे जाओ
    कैसे काट, उधेड़ें, साधे ?
हदें नहीं होती जनपथ की
वह तो बस लाँघे ही लाँधे ! ::

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43. ऐसी एक छाँह देखी है.....


    ऐसी एक छाँह देखी है.....
    खुली-खुली सी, धुली-धुली सी,
    शीतल-शीतल, बोल-अबोली,
    घेर, घुमेरों गहरी-गहरी


देख, देखता लगा नापने
मेरा अचरज इसकी सींवें,
वह क्या जाने, वह तो केवल
नीली रूपवती सैरंध्री


    अपनी ओछी डोर समेटे
    भीतर दुबका उधम मचाये
    दबचिंथ दबचिंथ छूटूँ ही तो---


छूट-छूटते उघड़ें आँखें,
सावचेत हो देखन लागूँ-
लगी हुई है ठीक भुवन के
बीचोबीच सुपर्णी टिकुली


    उससे यूँ छँवयाये मुझमें
    छन-छन जाय एक रोशनी
    एक गुनगुना जगरा लहरे


इससे भीतर हलबल-हलबल
बाहर का मैं आकळ-बाकळ
ताप तताये आ-आ निकलें
आखर-आखर के ही छौन
    करते जाएं वे रागोली
    टमका-टमका करें निहारे
    ठिठका-ठिठका पाँव उठाऊँ


दिखें मुझे ऐसे कमतरिये
इक दूजे की परछाई से
इनमें ही अपने होने की
वैसी एक चाह देखी है
    ऐसी एक छाँह देखी है ! ::

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44. ऐसी एक ठौर देखी है !


ऐसी एक ठौर देखी है !
    सड़क नहीं पगडण्डी कोई
    नहीं कहीं से बँटी-बँटी सी


    पाँव-पाँव को चलन बताए
    दूरी से अनुराग सिखाए


चले तो खुद ही पथ बन जाए
लगे बिछी दाके की मलमल


देखन लागो, थके न आँखें
हेमरंग डूँगर ही डूँगर


    लगो पूछने अपने से ही
    यह रचना किसने देखी है !
ऐसी एक ठौर देखी है !


    यहाँ सुबह से पहले उठती
    रमझोळों वाली यह ड्योढ़ी


    धूपाली गायों के संग-संग
    रंभाती दूधाली गायें


यह अपने पर घर रूपाये
खुद सिणगारी ऐसे संवरे
जैसे लडा-लडा बेटी को
मायड़ केश संवारे गूँथे


    भर-भर भरती जाय कुलांचें
    यहीं एक हिरनी देखी है !
ऐसी एक ठौर देखी है !


    थप-लिपती इसकी सौरम को
    हवा उड़ाये ऐसे फिरती


    जैसे हाथ छुड़ा कर भागे
    हँसती हुई खिलंदड़ छोरी


आँक नहीं है, बाँक नहीं है
इसके मन में फाँक नहीं है
सुनो तो लागे सबको ऐसी
बेहदवाली बोल रही है


    बाथों में भूगोल सरीखी
    जैसे विषुवत ही रेखी है !
ऐसी एक ठौर देखी है ! :::

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भाग-7




   

45. ऐसी एक चलन देखी है !

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    ऐसी एक चलन देखी है !
    अपना होना
    बिसरी-बिसरी
    इस-इसको, उस-उसको निरखे
    इसकी खातिर
    उसकी खातिर
    अपना होना बीजे जाए


    सींचे हेत
    पसीना सींचे
    कभी न सोये पहरेदारिन
    एक हाथ
    सबसे ऊपर हो
    सूरज के नीचे छतरी सी


    हवा बिफरती
    आए जब भी
    केवल आँचल भर हो जाए
    लीलटांस
    जैसे सपनों को
    अपनी आँखों रहे निथारे


ऐसी एक लगन देखी है !
ऐसी एक चलन देखी है !


    यूँ बज-बजती
    रहे जहाँ वह,
    कहे रसोई यहाँ और बज
    काँसी बजती
    राग भैरवी
    सुनते ही तो भागी आए
    हाथ हिले
    समिधायें जुड़लें
    हड़-हड़ हांसन लागे चूल्हा
    रसमस-रसमस
    आटा-पानी
    थप-थप थपे.....थपे चंदोवे


    सिक-सिक उतरें
    गट-गट, गप-गप
    आखर भागें धाप रागते
    खाली हांडी
    और कठौती
    छू-छू कर होना पूरे जो


ऐसी एक छुअन देखी है !
ऐसी एक चलन देखी है ! ::

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46. घर का सच


    घर का सच
    अब ऐसा सा है !


मुझसे तो बावन कद ऊँची
लम्बी, चौखानी दीवारें
सांचों ढली, कसी छत ऊपर
चित-पट दोनों सुते-सुते से


धुंधआए काँचों की खिड़की
रोशनदान बिवाई जैसे
एक हाथवाला दरवाजा
उस पर खुदी आँख भर जाली


टनन-टनन पर ताका-झाँकी
एक अबोली हाँ-ना-ना-हाँ
नब्बे का आधा खुलते ही
अपने आप बन्द हो जाए


    अब बाहर से
    क्या रिश्ता है ?
    भीतर सब मैं-मैं जैसा है
    घर का सच
    अब ऐसा सा है !


सजी-संवारी ये डिबियायें
मानें हैं खुद को दुनियायें
उझक-उझक देखा करती ये
टुकड़-टुकड़ा आसमान को


धूप तो केवल चिंदी-कतरन
हवा, साँस तो कूलर से ही
बातों की गुंजाइश कम है
पहले घड़ी, कलैंडर देखें


इनके अनुवादों, भाष्यों पर
होना, ना होना होता है
ये जब-जब भी बोली होतीं
मेरी खातिर गूंगे का गुड़


    इसको खा
    ना खाकर भी तो
    कैसे कहूँ स्वाद कैसा है ?
    घर का सच
    अब ऐसा सा है !
इसे देखते लागे मुझको
मैं तो एक अजूबा भर हूँ
एक अजूबा पूछूँ किससे
किसने कहा घोलले खड़िया


ले माटी से उपजा डोका
यह ले चाकू थाम हाथ में
छिल-घिस-छिल-घिसकर इसको तू
लिखने वाली पाँख बनाले


ले यह पाटी अपने आगे
देख-समझ कर मांड मांडणे
अपने में ही धूज-धूजते
पाटी, पाँख थामली हाथों


    ईंड-मींडिया
    मांड-मांडते
    लागा अ अच्छर जैसा है !
    घर का सच
    अब ऐसा सा है !


धर-मजलां लिख-लिखते समझा
घर का माने आँगन, आँगन
ऊपर आसमान जैसी छत
बगलग़ीर होत दरवाजे


धूप तो जेसे चोला-धोती
झलती पंखी साँस सरीखी
बोली तो ऐसी बोलारू
पाखी सुन माने बतलाए


पर अब तो बगसा बोले है
शाम हो ऐसी, सुबह वैसी,
दिन तो जोड़-गुणा-बाकी ही
रातों का व्याकरण अलग है
    मुझ वामन को
    यहा यूँ लागे
    लीलावती गणित जैसा है !


    घर का सच
अब ऐसा सा है ! ::    

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47. ना घर तेरा, ना घर मेरा


ना घर तेरा, ना घर मेरा
लुबडुब थमने तक का डेरा !


    इस डेरे के भीतर बीहड़
    कांटें और उगाएँ बाहर
    भीतर के काँटों से छिल-छिल
    बाहर आ सुखियाया चाहें,


लागे बाहर तो चिरमी भर
हो ही जाए वह विंध्याचल
खाय झपाटे समझ सूरमा
थकियाये भीतर जा दुबकें


    दुबके-दुबके बुनें जाल ही
    फैंके चौकस बन बहेलिये
    कटे, कभी तो उड़ ही जाए
    आखी उमर चले यह फेरा !


ना घर तेरा, ना घर मेरा
लुब-डुब थमने तक का डेरा !


    इस फेरे को देखे ही हैं
    क्या लेकर आता है काई
    फिर भी हर-हर लगे मांडता
    जमा-नाव के खाते-पाने


पोरें घिस-घिस गिनता जाए
ज्यू-त्यूं जुड़ें नफे का तलपट
यह तलपट हो जाय तिजूरी
यूँ-व्यूँ नापे, तोले-जोखे


    ऐसे में ही साँस ठहरले
    सीढ़ी झुक हो जाय बिछौना
    आ ! मैं-तू दोनों ही देखें
    क्या ले जाए साथ बडेरा ?


ना घर तेरा, ना घर मेरा
लुबडुम थमने तक का डेरा !


    जाते बड़कों की जमघट में
    अनदेही होकर भी देही
    चौराहों पर बोल बोलते
    दिखें कबीर, शिकागो-स्वामी,


इन दोनों का कहा बताया
इनसे पहले कई कह गए
सुना, अनुसना करते आए
करते ही जाए हैं अब भी


    पर एकल सच इतना-सा ही
    सबका होना सबकी खातिर
    इस सच का सुख सिर्फ यही है
    और न कोई डैर-बसेरा !
ना घर तेरा ना घर मेरा
लुबडुब बसने तक का डेरा ! ::

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48. उड़ती हुई सुपर्णा मुझसे


उड़ती हुई सुपर्णा मुझसे
    इतना पूछ गई !


सोचे बैठा,
ये-वो आसमान तो रचलूं,
उठी न जाने
किस अनहद से
दोनों हाथ बाँध कर मेरे
    मुझसे झूझ गई !


देख बतातो
अपने आगे ठूंठ सरीखे
बीती बातों के करघे पर
कितने बरसों, कितनी साधी
आड़ी तानें, सीधी तानें,
    कितनी छूट गई !


इतने बरसों
कितने थान बुने बोलो तो,
कैसे रंग सने देखो तो,
ओढ़-बिछा क्या-क्या पहनोगे ?
प्रश्नों की अनबूझ पहेली
    मुझमें गूंथ गई !


यह ले दर्पण
झुरियाया तन, फटियल आँखें,
राखोड़ी रंग, फटी-फटी सी
एक चटाई भर देखूं मैं
यही बुना क्या, कहते-कहते
    मुझको कूंत गई !


जाने कब से
वैसी सी ही फिर चाहूँ मैं
गूंजे-अनुगूंजें उतरे फिर,
पळ-पळती बारहखड़ी देखे-
बीती की गुळगांठ खोलते
    पोरें सूज गई


उड़ती हुई सुपर्णा मुझसे
    इतना पूछ गई ! ::

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49. उड़ना मन मत हार सुपर्णे


देख लिए देखे ही है तू
    अपने पर मंडराते बाज,
पड़ी पड़े कड़कड़ा कभी फिर
    जाने कौन दिशा से गाज,


आए-गए सभी जुड़वां थे
    वैसे ही ऊभे कारीगर,
भरा हुआ तरकश है पीछे
    दोनों हाथों सधी कमानी
नाद-भेदिये छोड़ेंगे ही
विश-बुझे तीर कलेजे पार
    सुपर्णे उड़ना.....


रंग-पुती आंखें ही देखें
    बाहर का बाहर ही बाहर,
एक अहम देखे ही फिर क्यों
    इस विराट का कैसा अन्तर


बाहर के भीतर दुनिया
    देखे यह जड़ भरत कभी तो,
ना-जोगे इस सूरदास की
    भीतरवाली खुले कभी तो
दिखे उसे तब इस दर्पण में
मेरे मैं का क्या आकार ?
    सुपर्णे.....


रचनावती एषणावाले
    सुन तू समय पुरुश बोले है,
अथ-इति-अथ की उलझी आडी
    निपट भाखरी में खोले हैं,


एक नहीं वे साते मिलें जब
    मैं-तू बनें तभी संज्ञाएं,
जीना-मर-जीना इतना भर
    आँखें झप खुल झप-खुल जाएं
लगते से सारे असार में
संसरित ये-वे सब संसार
    सुपर्णे.....


नीली-नीली आँखों वाले
    तेरा धरम उड़ानें भरना,
सबको साखी रख-रख तुझको
    सांसों-सांसा सिरजते रहना,


जो देखे है सब हम रूपी
    रम रमता सबमें रमजा तू
कलकलता बह रहा अथाही
    घुल-घुलता इसमें घुल जा तू
तू इस विस्मय का अंशी है
तेरे होने का यह सार
    सुपर्णे उड़ना मन मत हार । ::

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50. यूं जीने का रोज भरम उघड़े


रात-रात भर
निपट निगोड़े आखर जनना
होने की मजबूरी


किरणों का रंभाना सुन-सुन
सरकंडों की लाज ठेल कर
बोल-बोलते ये जा.....वो जा.....
यह उनकी मजबूरी,


मेरे जाये
मुझ तक तो वे लौटेंगे ही
आखा दिन हेराती आँखों
लौट रहे
हर एक सयाने का सपना उतरे
यूं जीने का.....


सुनूं अचानक
लोहे के जबड़े से छूटी
हू-हू करती हूंक,
सुनूं पड़ी, पड़ती जाए यूं
सड़सड़ाक कोड़े,


मगर न चीखे कोई, ना कोई कुरळाए
लगे, सांस में ठरा-ठरा
भीगा, खारा गुमसुम
कड़वाया गुमसुम,


हाथों से हम्फनी साधता देखे जाऊँ-
सुबह गए जो घुटरुन-घुटरुन
झलझल-झलमल से दिप दिपते,
वे ही हां वे मेरे आखर
तुड़े-मुझे सब आंगन आय पड़े
    यूं जीने का.....


बाप सरीखा तरणाटी खा
अपने आपे से आ निकलूं,
नीली मेड़ी उतर-उतर कर भाग गई जो
सड़कों-गलियों,
पीछे-पीछे बोली होने को अतुराये
मेरे आखर,


वह भी तो लौटी ही होगी
जा पकडूं जो दिखे कहीं वह,
कोई नहीं....सिर्फ सन्नाटा.....


ऊपर था न,
कहां गया वह आसमान ही
दिखती केवल गीली स्याह कपास


एक अकेला दस-दस हाथों
चिथराता उतरे,
मेरे आंगन मेरे दिन की
ऐसी सांझ झरे,
आखर के सपनों का हर दिन
कलमष हो उतरे


यूं जीने का रोज भरम उघड़े । ::

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51. अभी और चलना है.....


अभी और चलना है.....
दरवाजा खुलते ही बोले-
    मुझसे सड़क शुरू होती है,
आहट की थर-थर-थर पर ही
    लीलटांस पाँखें फर फरती
उड़े दूरियाँ गाती
चूना पुती हुई काली पर
    पाँवों को मण्डना है.....


कहते से बैठे हैं आगे.....
    चार, पाँच, कई सात रास्ते,
दस-दस बाँसों ऊँचे-ऊचे
    खड़े हुए हैं पेड़ थाम कर
छायाओं के छाते,
घाटी इधर, उधर डूंगर वह
    जंगल बहुत घना है.....


झुका हुआ आकाश जहाँ पर
    उस अछोर को ही छूना हो,
कोरे से इस कागज ऊपर
    अपने होने के रंगों को
भर देना चाहा हो
तब तो आखर के निनाद को
    सात सुरों सधना है.....


अभी और चलना है..... ::

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सन्नाटे के शिलाखंड पर