भाग-3




   

8. साँसों की अँगुली थामे जो


साँसों की अँगुली थामे जो
        आए क्वांरी साध तो
    गीतों से माँग संवार दूँ
    मैं रागों से सिंगार दूँ
संकेतों की मनुहार दूँ
साँसों की अँगुली थामे जो.....


    गीतों के आखर को सुर्खी
        दी है तीखी धूप ने
    रागों के स्वर को आकुलता
        दी लहरों के रूप ने
    तट सा मौनी सपना कोई
        चाहे मेरा साथ तो
    पीड़ा-सा उसे उभार दूँ
    सौ आँसू उस पर वार दूँ
आशाओं के उपहार दूँ
साँसों की अँगुली थामे जो.....


    मेरे गीतों को ढलुआनें
         दी झुकते आकाश ने
    रागों को बढ़ना सिखलाया
        वनपाखी की प्यास ने
    शूलों से बतियाते कोई
        आए मुझ तक पाँव तो
     मैं बाँहों को विस्तार दूँ
     मैं दो का भेद बिसार दूँ
परछाई सा आकार दूँ
साँसों की अँगुली थामे जो.....


    मेरे गीतों को गदराया
        सावन की सौगात ने
    रागों को गूँजें दे दी हैं
        मेघों की बारात ने
    रिमझिम बरखा जैसी कोई
        बरसे मुझ पर याद तो
    मैं मन की जलन उतार दूँ
    मैं धुँधले पंथ निखार दूँ
मैं सारा सफर गुजार दूँ
सांसों की अँगुली थामे जो.....


मेरे गीतों में सागर की
        अनदेखी गहराई है
मेरी रागों के सरगम में
        मौजों की तरुणाई है
सूनेपन से सिहरी-सिहरी
        बहके कोई नाव तो
    मैं मलयाई पतवार दूँ
    मैं हर क्षण फेनिल प्यार दूँ
मैं कोई तीर उतार दूँ
साँसों की अँगुली थामे जो
        आए क्वांरी साध तो
    गीतों से माँग संवार दूँ
    मैं रागों से सिंगार दूँ
संकेतों की मनुहार दूँ
साँसों की अँगुली थामे जो ::

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9. फेरों बाँधी हुई सुधियों को


फेरों बँधी हुई सुधियों को
        कैसे कितना
        और बिसारें
    आती ही जाती
    लहरों-सी
    दूरी से सलवटें संजोती
    तट की फटी दरारों में ये
    फेनाया-सा
    तन-मन खोती
अनचाहा यह मौन निमन्त्रण
कौन बहानों से इन्कारें


फेरों बँधी हुई सुधियों को
        कैसे-कितना
        और बिसारें


    रतनारे नयनों को मूँदे
    पसर-पसर
    जाती रातों में
    सिहर-सिहर
    टेरें भरती हैं
    खोजी सपनों की बातों में
साँसों पर कामरिया का रंग
किन हाथों से पोंछ उतारें


फेरों बँधी हुई सुधियों को
        कैसे, कितना
        और बिसारें


    परदेशी जैसी
    अधसोई
    अलसा-अलसा कर अकुलाती
    सूरज देख
    लाजवंती-सी
    उठ जाती
    परभाती गाती
धूप चदरिया मिली ओढ़ने
फिर क्यों तन से इसे उतारें


फेरों बंधी हुई सुधियों को
        कैसे-कितना
        और बिसारें ::

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10. तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है


    तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है
    क्या हुआ जो
    रागिनी को पीर भागई
    क्या हुआ जो
    चाँदनी को नींद आगई
स्याह घाटियों में कोई बात खो गई
    क्या हुआ जो
    पाँखुरी पे रात रो गई
        कि हर घड़ी उदास है
        फिर भी एक आस है
    कि लाल-लाल भोर की
    कि पंछियों के शोर की
तेरे-मेरे जागरण की रीत एक है
तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है


    क्या हुआ कली जो
    अनमनी-सी जी रही
    क्या हुआ जो धूप
    सब पराग पी रही
अभी खिली अभी झुकी-झुकी-सी ढल रही
    क्या हुआ हवा
    रुकी-रुकी सी चल रही
        कि हर कदम पे आग है
        फिर भी एक राग है
    कि साँझ के ढले-ढले
    कि एक नीड़ के तले
तेरी-मेरी मंजिलों की सीध एक है
तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है


    आ, कि तू, मैं
    दूरियों को साथ ले चलें
    आ, कि तू, मैं
    बंधनों को बांधकर चलें
क्या हुआ जो पंथ पर धुएँ का आवरण
    किन्तु कुछ भी हो
    कहीं रुके-थके नहीं लगन
        कि हर किसी ढलान पर
        कि हर किसी चढ़ान पर
    कि एक साँस एक डोर से
    कि एक साथ एक छोर से
तेरी-मेरी जिन्दगी की प्रीत एक है
तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है ::

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11. पीर कुछ ऐसी


पीर कुछ ऐसी
बरसी सारी रात.....
    भोर कुछ और सुहानी होकर निकली


    बहुत घुली
    घुल-घुल गहराई
    बदरी विरहा साँस की


    उलझ-उलझ
    पथ भूली गंगा
    सपनों के आकाश की


रही तड़पती
बिजुरी-सी आधी बात
    ऊषा कुछ और कहानी होकर निकली
पीर कुछ ऐसी
बरसी सारी रात
    भोर कुछ और.....


    बहुत झुरी
    झुर-झुर कर रोई
    मन की आस अभाव में


    अनजाने
    अनगिन तट देखे
    आँसू के तेज बहाव में,


सूनेपन में
कुछ अपना लगा प्रभात
    धूप कुछ और सलोनी होकर निकली


पीर कुछ ऐसी
बरसी सारी रात
    भोर कुछ और.....


    रात चली
    रोती-रोती
    इस धरती का सिंगार कर


    सातों स्वर
    ले आई किरणें
    कली-कली के द्वार पर
सहमी-सहमी
कुछ जगी हृदय की साध
    साँस कुछ और सयानी होकर निकली


पीर कुद ऐसी
बरसी सारी रात
    भोर कुछ और सुहानी होकर निकली ::

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12. मैंने नहीं कल ने बुलाया है !


    मैंने नहीं कल ने बुलाया है !
    ख़ामोशियों की छतें,
    आबनूसी किवाड़े घरों पर,
    आदमी-आदमी में दीवार है,
तुम्हें छैनियाँ लेकर बुलाया है !
मैंने नहीं कल ने बुलाया है !


    सीटियों से
    साँस भर कर भागते
    बाजार-मीलों दफ़्तरों को
    रात के मुर्दे,
    देखती ठण्डी पुतलियाँ-
    आदमी अजनबी
    आदमी के लिए
तुम्हें मन खोल कर मिलने बुलाया है !
मैंने नहीं कल ने बुलाया है !


    बल्ब की रोषनी
    शेड में बंद है,
    सिर्फ़ परछाई उतरती है
    बड़े फुटपाथ पर,
    ज़िन्दगी की ज़िल्द के
    ऐसे सफ़े तो पढ़ लिए
तुम्हें अगला सफ़ा पढ़ने बुलाया है !
मैंने नहीं कल ने बुलाया है ! ::

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13. शहर सो गया है!


शहर सो गया है!


    औज़ार से खेलते
    एक संसार के सोच को
    आर से पार तक बींधता
    एक तीखा सा
    बजता हुआ सायरन
    बस, गया है अभी


    और बोले बिना
    साख भर छापकर
    धूप को सांटता
    आकाशिया भी सरका अभी


    यूं घिसटता चले
    जैसे तन बोझ भर रह गया है !


शहर सो गया है!


    रची आँख ने दोपहर
    साँझ माँडी
    खिड़कियों, गली
    और माटी लिपे आँगन


    फ़क़त एक जबड़े से निकला
    धुआँ धो गया है !


शहर सो गया है!


    बैठा हुआ था बाजार में जो
    अभी शोर का संतरी
    उगे मौन के जंगलों में
    सहमा हुआ खो गया है!


शहर सो गया है!


    बुत रोशनी के
    सड़क के किनारे
    लटका दिये सूलियों पर
    अँधेरी अँगुलियों में
    स्वर रूँध गया है!


शहर सो गया है!


    आग-पानी के नद पार पर
    घास का एक बिस्तर
    बिछाया है उसने


    तमोलो-चमोलों चढ़ी
    काँच से झाँकती
    रोशनी को अँगूठा दिखा कर


    ओढ़ कर थकन की
    फटी-सी रजाई
    छाती में घुटने
    धँसा, सो गया है !


शहर सो गया है ! ::

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14. क्षण-क्षण की छैनी से


क्षण-क्षण की छैनी से
        काटो तो जानूँ!


    पसर गया है घेर शहर को
    भरमों का संगमूसा
    तीखे-तीखे शब्द सम्हाले
    जड़ें सुराखो तो जानूँ !


क्षण-क्षण की छैनी से.....


    फेंक गया है बरफ छतों से
    कोई मूरख मौसम
    पहले अपने ही आँगन से
    आग उठाओ तो जानूँ!
क्षण-क्षण की छैनी से.....


चौराहे पर प्रश्न चिह्नसी
    खड़ी भीड़ को
    अर्थ भरी आवाज लगाकर
    दिशा दिखाओ तो जानूँ !


क्षण-क्षण की छैनी से
    काटो तो जानूँ ! ::

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15. थाली भर धूप लिए


थाली भर धूप लिए
        बैठी अहीरन!
    सिरहाने लोरी सुन
    सोये पल जाग गए,
    अँजुरी भर दूध पिया
    बिन बोले भाग गए


उड़ी-उड़ी फूलों की गंध
        बाँधन में मगन!
थाली भर धूप लिए.....


    छाँहों की छोड़ गली
    सड़कों-चौराहों को,
    खेतों में हिलक रही
    बालों की बाँहों को


गूँज-गूँज डोरी से
    बाँधने की लगन!
थाली भर धूप लिए.....


    साथ देख रीझे है
    साँझ-सी सहेली,
    चाहों से भर दी है
    रात की हथेली


आंज लिए आँखों में
    उजले सगुन !
थाली भर धूप लिए
    बैठी अहीरन ! ::

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16. उतरी जो चाह अभी


उतरी जो चाह अभी
    पूरबी दुमहले से.....


    सोने के पाँव रखे
    चौक-छत-मुंडेरों पर
    पोरों से दस्तक दी
    बंद पड़ी ड्योढ़ी पर
    निंदियायी पलकों पर
    कुनमुनती गलियों
    सड़कों-फुटपाथों पर
उठ बैठे जितने सवाल
    सब बटोर ले गई मुहल्ले से!
उतरी जो चाह अभी
    पूरबी दुमहले से.....


    धरती पर आ उतरे
    टीन के आकाश नीचे,
    साँस-साँस पिघलाई
    आग की कढ़ाही में
    लोहे के साँचों पर
    आँख टिका, आँख झपक
    हिल-हिलते हाथों से
    पानी में ठार-ठार
    संकेतों-संकेतों-
आखर ही आखर
    ढल रहे धड़ल्ले से!
उतरी जो चाह अभी
    पूरबी दुमहले से.....


    हीरों से हरियाये खेतों में
    हुम-हुम कर हिलके हैं
    हाथ-हाथ हाँसिये
    हो-हो की आवाजें
    टिच-टिचती टिचकोरी
    हेर रही बैलों को
    ऐसा यह दूर दरसन
    देख-देख, रीझ-रीझ
    ठहरी है दोपहरी मेड़ों पर
    वे भी तो थम-थमते
    धूप से धो हाथ-मुँह
    एक पंगत हो जुड़े हैं
घर से ढाणी
    घर-ढाणी के थल्ले से!
उतरी जो चाह अभी
    पूरबी दुमहले से.....


    खाली हुई पेट की
    कुई के आगे आ गया है
    प्याज-छाछ-सोगरा
    मुट्ठी में मसोस कर
    मसक लिया है थाली में,
    एक बखत पांण दे
    उठ लिए हैं कमधजी
    बे उधर कि ये इधर
घास-घास, फूस-फूस
    फटक हैं पल्ले से
उतरी जो चाह अभी
    पूरबी दुमहले से! ::


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