17. कोलाहल के आँगन
कोलाहल के आँगन सन्नाटा रख गई हवा दिन ढलते-ढलते..... कोलाहल के आँगन!
दो छते कंगूरे पर दूध का कटोरा था धुँधवाती चिमनी में उलटा गई हवा दिन ढलते-ढलते..... कोलाहल के आँगन!
घर लौटे लोहे से बतियाते प्रश्नों के कारीगर आतुरती ड्योढ़ी पर सांकल जड़ गई हवा दिन ढलते-ढलते..... कोलाहल के आँगन!
कुंदनिया दुनिया से झीलती हक़ीक़त की बड़ी-बड़ी आँखों को अँसुवा गई हवा दिन ढलते-ढलते..... कोलाहल के आँगन!
हरफ़ सब रसोई में भीड़ किए ताप रहे, क्षण के क्षण चूल्हे में अगिया गई हवा दिन ढलते-ढलते कोलाहल के आँगन
सन्नाटा रख गई हवा दिन ढलते-ढलते..... कोलाहल के आँगन! ::
TOP
18. आए जब चौराहे आए जब चौराहे आग़ाज़ कहाए हैं लम्हात चले जितने परवाज़ कहाए हैं
हद तोड़ अँधेरे जब आँखों तक धँस आए, जीने के इरादों ने जंगल सुलगाए हैं आए जब चौराहे.....
जिनको दी अगुवाई चढ़ गए कलेजे पर, लोगों ने गरेबां से वे लोग उठाए हैं आए जब चौराहे.....
बंदूक ने बंद किया जब-जब भी जुबानों को जज्बात ने हरफ़ों के सरबाज उठाए हैं आए जब चौराहे.....
गुम्बद की खिड़की से आदमी नहीं दिखता, पाताल उलीचे हैं ये शहर बनाए हैं आए जब चौराहे.....
जब राज चला केवल कुछ खास घरानों का, काग़ज़ के इशारे पर दरबार ढहाए हैं आए जब चौराहे.....
मेहनत खा, सपने खा चिमनियाँ धुआँ थूकें तन पर बीमारी के पैबंद लगाए हैं आए जब चौराहे.....
दानिशमंदो बोलो ये दौर अभी कितना अपने ही धीरज से हर साँस अघाए हैं आए जब चौराहे.....
न हरीश करे लेकिन अब ये तो करेंगे ही झुलसे हुए लोगों ने अंदाज़ दिखाए हैं,P. आए जब चौराहे, आग़ाज़ कहाए हैं लम्हात चले जितने, परवाज़ कहाए हैं ::
TOP
19. प्यास सीमाहीन सागर
प्यास सीमाहीन सागर अंजुरी भरले कोई!
लहरें टकरती पीर की मौनी किनारों से, झुलसी हुई ये लौटती तपते उतारों से
शेष सुधियाँ फेन जैसी आँगने रखले कोई! प्यास सीमाहीन सागर.....
दूरियों से दूरियों तक सिर्फ़ टीसें गूँजती, और बहकी-सी सिहरनें द्वार-ड्योढ़ी घूमती
सपन तारों से अनींदे आँख में भरले कोई! प्यास सीमाहीन सागर.....
आस जागेगी अलस कर रात जो करवट भरे, साँस पीलेगी स्वरों को भोर जो आहट करे
साध पूरब की किरणसी बाँह में भरले कोई!
प्यास सीमाहीन सागर अंजुरी भरले कोई! ::
TOP
20. उम्र सारी
उम्र सारी इस बयाबां में गुजारी यारो! सर्द गुमसुम ही रहा हर साँस पे तारी यारो !
कोई दुनिया न बने रंगे-लहू के खयाल, गोया रेत ही पर तस्वीर उतारी यारो! उम्र सारी.....
देखा ही किए झील वो समंदर, वो पहाड़, अपनी हर आँख सियाही ने बुहारी यारो ! उम्र सारी.....
जहाँ सड़क, गली आँगन जैसे बाज़ार चले, न चले, अपनी न चले यहां असआरी यारो! उम्र सारी.....
रहबरों तक गई वो तलाश रहे साथ, सफ़र उसकी आबरू हर बार उतारी यारो ! उम्र सारी.....
हाँ, निढ़ाल तो हैं पर कोई चलना तो कहे, मन के पाँवों की बाकी अभी बारी यारो ! उम्र सारी.....
उठके डूबे है कहीं अपनी आवाज़ यहाँ किसी आग़ाज़ से ही सिलसिला जारी यारो ! उम्र सारी.....
अब जो बदलो तो कहीं हो, गुनहग़ार हरीश वही रंगत, वे ही दौर, वही यारी यारो !
उम्र सारी इस बयाबां में गुजारी यारो ! सर्द गुम-सुम ही रहा हर साँस पै तारी यारो ! ::
TOP
21. टूटी ग़ज़ल न गा पाएँगे !
टूटी ग़ज़ल न गा पाएँगे !
साँसों का इतना सा माने स्वरों-स्वरों मौसम-दर-मौसम हरफ़-हरफ़ गुंजन-दर-गुंजन हवा हदें ही बाँध गई है सन्नाटा न स्वरा पाएंगे ! टूटी ग़ज़ल न गा पाएंगे !
आँखों का इतना-सा माने खुले-खुले चौखट-दर-चौखट सुर्ख-सुर्ख बस्ती-दर-बस्ती आसमान उल्टा उतरा है अँधियारा न आँज पाएँगे ! टूटी ग़ज़ल न गा पाएँगे !
चलने का इतना-सा माने बाँह-बाँह घाटी-दर-घाटी पाँव-पाँव दूरी-दर-दूरी काट गए काफ़िले रास्ता यह ठहराव न जी पाएँगे ! टूटी ग़ज़ल न गा पाएँगे ! ::
TOP
22. कल से क्या
कल से क्या आज से गवाही ले, मितवा !
घाटी में आँगन है आँगन में बाँहें बाँहती दहरिया की कल से क्या आज से गवाही ले, मितवा !
आँखों में झीले हैं झीलों में रंग रंगवती हलचल की कल से क्या आज से गवाही ले, मितवा ! माटी में सांसें हैं सांसों के होठ बोलती पखावज की कल से क्या आज से गवाही ले, मितवा !
दूरी पर चौराहे चौराहे खुभते हैं चरवाहे पाँवों की कल से क्या आज से गवाही ले, मितवा
रात एक पाटी है पहर-पहर लिखता है उज़लती हक़ीक़त बड़ी कल से क्या आज से गवाही ले, मितवा !
घाटी में आँगन है, आँगन में बांहें बाँहती दहरिया की कल से क्या आज से गवाही ले, मितवा ! ::
TOP
23. ओ दिशा ! ओ दिशा ! ओ दिशा ! ओ दिशा ! कब से खड़े रास्ते घेर घर संशयों के अँधेरे सहमी हुई साँझ ड्योढ़ी खड़ी ठहरे हुए ये चरण सिलसिले हो उठें संकल्प की हथेली पर दृष्टि का सूर्य रखले ओ, दिशा ! ओ, दिशा !
मौन के साँप कुण्डली लगाए हुए हर एक चेहरा हर दूसरे से अलग जी रहा साँस बजती नहीं, आँख से आँख मिलती नहीं सारे शहर में कहीं कुछ धड़कता नहीं, चोंच भर-भर बुनें, षोर का आसमां स्वरों के पखेरू उड़ा ओ, दिशा ! ओ, दिशा ! ::
TOP
24. आ, सवाल चुगें, धूपाएं.....आ !
आ, सवाल चुगें, धूपाएं.....आ !
दीवारों पर आ बैठी यादों की सीलन नीचे से ऊपर तक रंग खरोंचे कुतर न जाए माटी का मरमरी कलेजा आ, सवाल चुगें, धूपाएं.....आ !
आँख लगाए है पिछवाड़े पर सन्नाटा जोड़-जोड़ पर नेज़े खोभे सेंधन लग जाए हरफ़ों के घर में आ, फ़सीलों से गूंजें.....पहराएं ! आ, सवाल चुगें, धूपाएं.....आ !
पसर गया है बीच सड़क भूखा चौराहा उझक-उझक मुँह खोले भरम निपोरे
निगल न जाए यह तलाश की कामधेनु को आ, वामन होलें, चल जाएं.....आ ! आ, सवाल चुगें, अगियाएं.....आ ! ::
TOP
25. ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए.....
ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए..... कुनमुनते तांबे की सुइयाँ खुभ-खुभ आंख उघाड़े रात ठरी मटकी उलटाकर ठठरी देह पखारे बिना नाप के सिये तक़ाज़े सारा घर पहनाए
ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए.....
साँसों की पंखी झलवाए रूठी हुई अंगीठी, मनवा पिघल झरे आटे में पतली करदे पीठी सिसकी-सीटी भरे टिफिन में बैरागी सी जाए ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए.....
पहिये, पाँव उठाए सड़कें होड़ लगाती भागें ठण्डे दो मालों चढ़ जाने रखे नसैनी आगे, दो-राहों-चौराहों मिलना टकरा कर अलगाए
ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए.....
सूरज रख जाए पिंजरे में जीवट के कारीगर, रचा, घड़ा सब बाँध धूप में ले जाए बाजीगर, तन के ठेले पर राशन की थकन उठा कर लाए
ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए..... ::
TOP
26. सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े
सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े बजती हुई सुई !
सीलन और धुएँ के खेतों दिन भर रुई चुनें सूजी हुई आँख के सपने रातों सूत बुनें आँगन के उठने से पहले रचदे एक कमीज रसोई,
एक तलाश पहन कर भागे किरणें छुई-मुई..... सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े बजती हुई सुई !
धरती भर कर चढ़े तगारी बाँस-बाँस आकाश, फरनस को अगियाया रखती साँसें दे-दे घास
सूरज की साखी में बंटते अंगुली जितने आज और कल,
बोले कोई उम्र अगर तो तीबे नई सुई बजती हुई सुई
सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े बजती हुई सुई ! ::
TOP
27. शहरीले जंगल में सांसों
शहरीले जंगल में सांसें हलचल रचती जाएँ.....साँसें !
कफ़न ओस का फाड़ बीच से दरके हुए क्षितिज उड़ जाएँ छलकी सोनलिया कठरी से आँखों के घड़िये भर लाएँ चेहरों पर ठर गई रात की राख पोंछती जाएँ, सांसें..... शहरीले जंगल में सांसें.....
पथरीले बरगद के साये घास-बाँस के आकाशों पर, घात लगाये छुपा अहेरी लीलटांस से विश्वासों पर पगडण्डी पर पहिये कसकर सड़कों बिछती जाएँ, सांसें..... शहरीले जंगल में सांसें.....
सर पर बाँध धुएँ की टोपी फरनस में कोयले हँसाएँ टीन-काँच से तपी धूप में भीगी-भीगी देह छाँवाएँ पानी, आगुन, आगुन, पानी तन-तन बहती जाएँ सांसें..... शहरीले जंगल में सांसें.....
लोहे के बावळिये काँटे जितने बिखरें रोज़ बुहारें, मन में बहुरूपी बीहड़ के एक-एक कर अक्स उतारें खिड़की बैठे कम्प्यूटर पर तलपट लिखती जाएँ सांसें..... शहरीले जंगल में सांसें.....
हाथ झूलती हुई रसोई बाजारों के फेरे देती भावों की बिणजारिन तकड़ी जेबें ले पुड़ियाँ दे देती सुबह-शाम खाली बांबी में जीवट भरती जाएँ, सांसें शहरीले जंगल में सांसें हलचल रचती जाएँ सांसें..... ::
|
No comments:
Post a Comment