28. कोई एक हवा ही शायद
कोई एक हवा ही शायद इस चौराहे रोक गई है
फिर-फिर फिरे गई हैं आंखें रेत बिछी सी पलकों से बूंदें अंवेर कर रखी रची सी, हिलक-हिलक कर रहीं खोजतीं तट पर जैसे एक समंदर बरसों से प्यासी थी शायद धूप चाटती सोख गई हैं
कोई एक हवा ही शायद इस चौराहे रोक गई है
हुए पखावज रहे बुलाते गूंगे जंगल बज-बजती साँस हुई है राग बिलावल
भूल गया झलमलता सपना झूले जैसे एक रोशनी बरसों से बोझिल थी शायद रात अँधेरा झोंक गई है
कोई एक हवा ही शायद इस चौराहे रोक गई है!
थप-थप पाँवों ने थापी है सड़क दूब सी रंगती गई पुरुरवा दूर को दिशा उर्वशी माप गई आकाश एषणा जैसे एक सफेद कबूतर होड़ बाज़ ही होकर शायद डैने खोल दबोच गई है !
कोई एक हवा ही शायद इस चौराहे रोक गई है ! ::
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29. चले कहाँ से चले कहाँ से गए कहाँ तक याद नहीं है.....
आ बैठा छत ले सारंगी बज-बजता मन-सुगना बोला उतरी दिशा लिए आँगन में सिया हुआ किरणों का चोला
पहन लिया था या पहनाया याद नहीं है..... चले कहाँ से.....
झुल-झुल सीढ़ी ने हाथों से पाँवों नीचे सड़क बिछाई, दूध झरी बाछों ने खिल-खिल थामी बाँह, करी अगुआई
रेत रची कब हुई बिवाई याद नहीं है..... चले कहाँ से.....
रासें खींच रोशनी संवटी, पीठ दिये रथ, भागे घोड़े उग आए आँखों के आगे मटियल, स्याह, धुँओं के धोरे,
सूरज लाया या खुद पहुँचे याद नहीं है..... चले कहाँ से.....
रिस-रिस, झर-झर ठर-ठर गुम-सुम झील हो गया है घाटी में हलचलती बस्ती में केवल एक अकेलापन पांती में
दिया गया या लिया शोर से याद नहीं है.....
चले कहाँ से, गए कहाँ तक याद नहीं है ! ::
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30. पीट रहा मन बन्द किवाड़े !
पीट रहा मन बन्द किवाड़े !
देखी ही होगी आँखों ने यहीं-यहीं ड्योढ़ी खुल-खुलती प्रश्नातुर ठहरी आहट से बतियायी होगी सुगबुगती बिछा, बिछाये होंगे आखर फिर क्यों झरझर झरे स्वरों ने सन्नाटों के भरम उघाड़े ? पीट रहा मन बन्द किवाड़े !
समझ लिया होगा पाँखों ने आसमान ही इस आँगन को बरस दिया होगा आँखों ने बरसों कड़वाये सावन को, छींट लिया होगा दुखता कुछ फिर क्या हाथों से झिटका कर रंग हुआ दाग़ीना झाड़े ? पीट रहा मन बन्द किवाड़े !
प्यास जनम की बोली होगी आँचल है तो फिर दुधवाये ठुनकी बैठ गई होगी ज़िद अँगुली है तो थमा चलाये चौक तलाश उतरली होगी, फिर क्यों अपनी-सी संज्ञा ने सर्वनाम हो जड़े किवाड़े ? पीट रहा मन बंद किवाड़े ! ::
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31. बता फिर क्या किया जाए
बता फिर क्या किया जाए
सड़क फुटपाथ हो जाए गली की बांह मिल जाए सफ़र को क्या कहा जाए बता फिर क्या किया जाए
नज़र दूरी बचा जाए लिखावट को मिटा जाए क्या इरादे को कहा जाए बता फिर क्या किया जाए
स्वरों से छन्द अलगाएँ गले में मौन भर जाएँ ग़ज़ल को क्या कहा जाए बता फिर क्या किया जाए
उजाला स्याह हो जाए समंदर बर्फ हो जाए कहां क्या-क्या बदल जाए बता फिर क्या किया जाए
आदमी चेहरे पहन आए लहू का रंग उतर जाए किसे क्या-क्या कहा जाए बता फिर क्या किया जाए ::
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32. सड़क बीच चलने वालों से
सड़क बीच चलने वालों से क्या पूछूँ.....क्या पूछूँ ?
किस तरह उठा करती है सुबह चिमनियों से ड्योढ़ी-ड्योढ़ी किस तरह दस्तकें देते हैं सायरन.....सीटियां.....क्या पूछूँ ? सड़क बीच चलनेवालों से क्या पूछूँ.....क्या पूछूँ ?
कब कोलतार को आँच लगी ? किस-किसने जी किस-किस तरह सियाही ? पाँवों की तस्वीर बनी कितनी दूरी के बड़े कैनवास पर.....क्या पूछूँ ? सड़क बीच चलने वालों से क्या पूछूँ.....क्या पूछूँ ?
कैसे गुजरे हैं दिन टीनशेड की दुनिया के ? किस तरह भागती भीड़ हाँफती फाटक से ? किस तरह जला चूल्हा ? क्या खाया-पिया ? किस तरह उतारी रात घास-फूस की छत पर.....क्या पूछूँ ? सड़क बीच चलने वालों से क्या पूछूँ.....क्या पूछूँ ?
पूछूँ उनसे चलते-चलते जो ठहर गए दोराहों पर
पूछूँ उनसे किस लिए चले वे बीच छोड़, फुटपाथों पर उस-उस दूरी के आस-पास ही अगुवाने को खड़े हुए थे गलियारे
उनकी वामनिया मनुहारों पर किस तरह कतारें टूट गई.....क्या पूछूँ
सड़क बीच चलने वालों से क्या पूछूँ.....क्या पूछूँ ? ::
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33. देखे मुझे हँसे सन्नाटा !
देखे मुझे हँसे सन्नाटा !
निरे अकेले बैठे-बैठे बहुत दूर की कई-कई आवाज़ें लगें मुझे अपने तक आतीं, अगुवाने को उठूँ कि देखूँ सड़क ले गई उन्हें झोंक कर मुझ पर सिर्फ गुबार हँसे सन्नाटा ! देखे मुझे हँसे सन्नाटा !
रोज ऊँघते गूँग लगे है फिर भी मुझसे केवल मुझसे ही बतियाने कोलाहल आँगन में आ बिखरा है, हँसती आँखें फेर बुहारूँ, चुग-चुग जोडूँ आखर-आखर बने न कोई दो हरफों का बोल हँसे सन्नाटा ! देखे मुझे हँसे सन्नाटा !
कई-कई बार लगे सपने में मेरे ही सिरहाने बैठा लोरी झलझलता कोई सम्बोधन दुलरा-दुलरा मुझे जगाए इस चूनर, आँचल से हुमकूँ फैंकू नींद उघाड़ दिखे सन्नाटा ! देखे मुझे हँसे सन्नाटा ! ::
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34. इसे मत छेड़ पसर जाएगी इसे मत छेड़ पसर जाएगी रेत है रेत बिफर जाएगी
कुछ नहीं प्यास का समंदर है, जिन्दगी पाँव-पाँव जाएगी
धूप उफने है इस कलेजे पर हाथ मत डाल ये जलाएगी
इसने निगले हैं कई लस्कर ये कई और निगल जाएगी
न छलावे दिखा तू पानी के जमीं-आकाश तोड़ लाएगी,
उठी गाँवों से ये ख़म खाकर एक आँधी सी शहर जाएगी
आँख की किरकिरी नहीं है ये झाँकलो झील नजर आएगी
सुबह बीजी है लड़के मौसम से सींच कर साँस दिन उगाएगी
काँच अब क्या हरीश मांजे है रोशनी रेत में नहाएगी
इसे मत छेड़ पसर जाएगी रेत है रेत बिफर जाएगी ::
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35. रेत में नहाया है मन !
रेत में नहाया है मन ! आग ऊपर से, आँच नीचे से वो धुँआए कभी, झलमलाती जगे वो पिघलती रहे, बुदबुदाती बहे इन तटों पर कभी धार के बीच में डूब-डूब तिर आया है मन रेत में नहाया है मन ! घास सपनों सी, बेल अपनों सी साँस के सूत में सात सुर गूँथ कर भैरवी में कभी, साध केदारा गूंगी घाटी में, सूने धारों पर एक आसन बिछाया है मन रेत में नहाया है मन !
आँधियाँ काँख में, आसमाँ आँख में धूप की पगरखी, ताँबई, अंगरखी होठ आखर रचे, शोर जैसे मचे देख हिरनी लजी साथ चलने सजी इस दूर तक निभाया है मन रेत में नहाया है मन ! ::
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36. बिणजारे आकाश ! करले,
बिणजारे आकाश ! करले, जितनी भी कर सके कमाई !
सोने के अवसर के ऊपर मिला तुझे अनमोल महूरत
बिना तले की बांबी वाला साथ हुआ है प्यासा मौसम
पहन होकड़े लूट लुटेरे यह मेरा अनखूट ख़ज़ाना
पड़ा दिगम्बर सात समंदों कितनी ही तन्वंगी नदियाँ
शिखरों-घाटी फाँद उतरते कल-कल करते झरनों का जल
चूके मत चौहान कि घर में घड़े-मटकियाँ जितनी भी हैं
अपनी सत-हथिया किरणों को तप-तप तपते थमा तामड़े
कहदे साँसों-साँस उलीचें बह-बह बहती यह नीलाभा
भरे-भरे सारे ही बर्तन रखता जा अपने तलघर में
जड़दे लोहे के किवाड़ पर बिन चाबी के सातों ताले
दसियों, बीसों बरसों तक के करले जो कर सके जतन तू
, छींप न पाए तेरी मेड़ी धरती जादों की परछाई बिणजारे आकाश करले, जितनी भी कर सके कमाई !
चम-चमती आँखें उघाड़कर देख, देखता, गोखे भी जा
मेरे एक कलेजे के ही इस कोने पर अड़ा-अड़ा-सा
हर क्षण उठे पछाटें खाए यह है अड़ियल अरबी सागर
धोके है जिसको गंगाजी वह आमार बांगला खाड़ी
चढ़-उतराती साँसों ऊपर लोहे के मस्तूल फरफरें
बंसी-जालों वाला मानुष मर, जन्में पीढ़ी-दर-पीढ़ी
निरे लाड से इसे पुकारूँ पूरब का वासी हिंदोदध
तू भी देख न पाया आँगन वह मेरा ही शान्त, प्रशान्त
सोया-सोया लगे तुझे जो वह त्राटक साधक कश्यपजी
हो जाए है तन कुंदनिया वह कुंकुमिया लाल समंद
अनहद नाद किए ही जाए कामरूप में ब्रह्मपुत्र जी
पंचोली पंजाबन बैठी आंजे आँखों में नीलाई
बिणजारे आकाश ! करले, जितनी भी कर सके कमाई !
काले-पीले चेहरों वाले वर्तुल चौकीदार बिठाले
कह, कानों में धूपटिये से और भरे ईंधन अलाव में
कह, उसकी लपती लाटों से मेरी बळत अजानी उससे
भक-भक झोंसे जाए लम्पट मेरे हरियाये खेतों को
साझा कर उंचास पवन से भल माटी को रेत बनादे
सातों जीभों को सौ करले पी-पी, चाट खुरचता जाए
सुन, मेरे ओ अथ के साथी ! मेरी इति ना देख सकेगा
उससे पूछ, याद आ जाए एक समंदर लहराता था
कैसे छोड़ गया मुझको वह मैंने कभी न पूछा उससे
अब खारा, मीठा, बर्फीला जितना भी है, जैसा भी है
कभी तुम्हारा दिया हुआ ही अब यह केवल मेरा ही है
इससे अपनी कूख संजोई प्राणों से पोशा है इसको
इसका दूजा रूप रचा जो ले, मेरी आँखों में देख !
झील, झीलता झीले है ना ? ले, तू, इसमें खुद को देख !
मानवती आँखों का पानी या फिर पानी वाली माटी
अगर एक भी सूखे तुझसे मैंने अपनी जात गंवाई !
बिणजारे आकाश ! करले, जितनी भी कर सके कमाई ? ::
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37. आँखों भर की हदवाले आकाश !
आँखों भर की हदवाले आकाश ! एक-एक संवत्सर ही क्यों कई-कई अनुवत्सर तक भी रख पानी का पत तू अपने पास ! आँखों भर की हदवाले आकाश !
चल-अचलों को रच-रच रचती सदा गर्भिणी धाय धरा को नहीं रही है केवल तेरी आस आँखों भर की हदवाले आकाश !
देख रे ओ नागे ओगतिये ! सूखे आँचल सात समंदर, पहले तू ही पांणले अपनी प्यास, आँखों भर की हदवाले आकाश !
कभी-कभी रिमझिम बरसे जो वह मेरी माटी माँ का ऋण मत लौटा तू रखले अपने पास आँखों भर की हदवाले आकाश !
आँख खोलने से पहले ही मुझे पिलाई गई एषणा वही बुने है कई-कई आकाश आँखों भर की हदवाले आकाश !
इसके गहन क्रोड़ में अमरत जीवट भरे कुम्भ जीवन का अन्तस-बाहर दोनों हरियल टांस
आँखों भर की हदवाले आकाश ! ::
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38. सड़कवासी राम !
सड़कवासी राम ! न तेरा था कभी न तेरा है कहीं रास्तों-दर-रास्तों पर पाँव के छापे लगाते ओ, अहेरी ! खोल कर मन के किवाड़े सुन, सुन कि सपने की सपने की किसी सम्भावना तक में नहीं तेरा अयोध्या धाम..... सड़कवासी राम !
सोच के सिर मौर ये दसियों दसानन और लोहे की ये लंकाएँ कहाँ है क़ैद तेरी भूमिजा खोजता थक देखता ही जा भले तू कौन देखेगा, सुनेगा कौन तुझको ? थूक फिर तू क्यों बिलोये राम..... सड़कवासी राम !
इस सदी के ये स्वयम्भू एक रंग-कूंची छुआकर आल्मारी में रखें दिन और चिमनी से निकाले शाम..... सड़कवासी राम !
पोर घिस-घिस क्या गिने चौदह बरस तू गिन सके तो कल्प साँसों के गिने जा गिन कि कितने काट कर फैंके गए हैं एषणाओं के जटायु ही जटायु और कोई भी नहीं संकल्प का सौमित्र अपनी धड़कनों के साथ देख, वामन सी बड़ी यह जिन्दगी ! करदी गई है इस शहर के जंगलों के नाम.....
सड़कवासी राम ! ::
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