भाग -2

आडी तानें सीधी तानें: अनुक्रम










 



ड़ी

 

ता

नें

 

सी

धी

 

ता

नें

 








1. ऐसे तट हैं - क्यों इन्करें

2. एक-एक क्षण जिया गया है

3. चाहे जिसे पुकार ले तू … अगर अकेली है!

4. सात सुरों में बोल… मेरे मन की पीर !

5. रही अछूती

6. सभी सुख दूर से गुजरें

7. सुधियाँ साथ निभाएँगी

8. साँसों की अँगुली थामे जो

9. फेरों बाँधी हुई सुधियों को

10. तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है

11. पीर कुछ ऐसी

12. मैंने नहीं कल ने बुलाया है !

13. शहर सो गया है!

14. क्षण-क्षण की छैनी से

15. थाली भर धूप लिए

16. उतरी जो चाह अभी

17. कोलाहल के आँगन

18. आए जब चौराहे

19. प्यास सीमाहीन सागर

20. उम्र सारी

21. टूटी ग़ज़ल न गा पाएँगे !

22. कल से क्या

23. ओ दिशा ! ओ दिशा !

24. आ, सवाल चुगें, धूपाएं.....आ !

25. ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए.....

26. सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े




27. शहरीले जंगल में सांसों

28. कोई एक हवा ही शायद

29. चले कहाँ से

30. पीट रहा मन बन्द किवाड़े !

31. बता फिर क्या किया जाए

32. सड़क बीच चलने वालों से

33. देखे मुझे हँसे सन्नाटा !

34. इसे मत छेड़ पसर जाएगी

35. रेत में नहाया है मन !

36. बिणजारे आकाश ! करले,

37. आँखों भर की हदवाले आकाश !

38. सड़कवासी राम !

39. केवल घर, घरवाला खोजें.....

40. जो पहले अपना घर फूंके,

41. हद, बेहद दोनों लांघे जो !

42. हदें नहीं होती जनपथ की

43. ऐसी एक छाँह देखी है.....

44. ऐसी एक ठौर देखी है !

45. ऐसी एक चलन देखी है !

46. घर का सच

47. ना घर तेरा, ना घर मेरा

48. उड़ती हुई सुपर्णा मुझसे

49. उड़ना मन मत हार सुपर्णे

50. यूं जीने का रोज भरम उघड़े

51. अभी और चलना है.....







   
1. ऐसे तट हैं - क्यों इन्करें


   ऐसे तट हैं --
      क्यों इन्कारें
      किरणें खीज
      खुरच जाती हैं
माटी पर दो - चार दरारें


   ऐसे तट हैं --
      क्यों इन्कारें


      भरी - भरी - सी
      सांस - झील पर
तन-मन प्यासे पंख पसारें


   ऐसे तट हैं --
      क्यों इन्कारें
      परदेशी
      बुद बुदे देखने
कंकर फैंकें, थकन उतारें


   ऐसे तट हैं --
      क्यों इन्कारें ::

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2. एक-एक क्षण जिया गया है



      एक-एक क्षण जिया गया है
      अभी-अभी
      डूबे सूरज की
      दिनभर की
            कुनमुनी झील को
सांस-सांस भर पिया गया है
एक-एक क्षण जिया गया है


      अभी चुभे
      अंधियारे विष से
      सीत्कारती
            आवाज़ों को


रात-रात भर सिया गया है
एक-एक क्षण जिया गया है


      खोल मौन के
      बंद किवाड़े
      मन के इतने बड़े नगर में
कोलाहल भर लिया गया है
एक-एक क्षण जिया गया है ::

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3. चाहे जिसे पुकार ले तू ...अगर अकेली है!


चाहे जिसे पुकार ले तू
अगर अकेली है!


संध्या खड़ी मुंडेर पर
पछुवाए स्वर टेर कर
अँधियारे को घेर कर
ये सब लगे अगर परदेशी
आंगन दीप उतार ले तू
      अगर अकेली है!
चाहे जिसे पुकार ले तू.....


देख सितारे और गगन,
दुखती-दुखती बहे पवन
घड़ियाँ सरके बँधे चरण
ये भी लगे अगर परदेशी
कल का सपन संवार ले तू
      अगर अकेली है!
चाहे जिसे पुकार ले तू
अगर अकेली है!


टहनी-टहनी बांसुरी
आई ऊषा नागरी,
खिली कमल की पांखुरी
गीत सभी पूरब परिवेशी
अपने समझ पुकार ले तू
      अगर अकेली है!
चाहे जिसे पुकार ले तू
      अगर अकेली है! ::

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4. सात सुरों में बोल, मेरे मन की पीर !


सात सुरों में बोल
      मेरे मन की पीर !
हर पतझर के देश में,
जा बासंती वेश में
सिणगारी सी डोल,
      मेरे मन की पीर !
सात सुरों में बोल....


जा शोलों के राज में,
बदरी के अंदाज में,
रिमझिम घूंघट खोल,
      मेरे मन की पीर !
सात सुरों में बोल....


अपनी-अपनी राह पर
मन भाती हर चाह पर
विरह-मिलन मत तोल
      मेरे मन की पीर !
सात सुरों में बोल....


साँसों की सीमाओं पर
मुस्कानों पर, आहों पर
जीवन का रस घोल,
      मेरे मन की पीर !
सात सुरों में बोल....
      मेरे मन की पीर ! ::

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5. रही अछूती


रही अछूती
सभी मटकियाँ
मन के कुशल कुम्हार की
        रही अछूती....


साधों की रसमस माटी
फेरी साँसों के चाक पर,
क्वांरा रूप उभार दिया
सतरंगी सपने आँककर


        हाट सजाई
        आहट सुनने
        कंगनिया झन्कार की
रही अछूती
सभी मटकियाँ
मन के कुशल कुम्हार की
        रही अछूती....


अलसाई ऊषा छूदे
मुस्का मूंगाये छोर से,
मेहँदी के संकेत लिखे
संध्या पाँखुरिया पोर से
        चौराहे रख दी
        बंधने को
        बाँहों में पनिहार की
रही अछूती
सभी मटकियाँ
मन के कुशल कुम्हार की
        रही अछूती....


हठी चितेरा प्यासा ही
बैठा है धुन के गाँव में,
भरी उमर की बाजी पर
विश्वास लगे हैं दाँव में


        हार इसी आँगन
        पंचोली
        साधे राग मल्हार की
रही अछूती
सभी मटकियाँ
मन के कुशल कुम्हार की
        रही अछूती... ::

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6. सभी सुख दूर से गुजरें


सभी सुख दूर से गुजरें
गौजरतें ही चले जाएँ
मगर पीड़ा उमर भर
        साथ चलने को उतारू है


हमको सुखों की आँख से तो
बाँचना आता नहीं
हमको सुखों की साख से तो
आँकना आता नहीं
    अभावों के चढ़ेए साँस की खूँटी
    हमको सुखों की लाज से तो
    झाँकना आता नहीं
निहारे दूर से गुजरें
गुजरते ही चले जाएँ
मगर अनबन उमर भर
        साथ चलने को उतारू है


मगर पीड़ा अमर भर....


हमारा धुप में घर
छाँह की क्या बात जानें हम,
अभी तक तो अकेले ही चले
क्या साथ जाने हम
    लो पूछलो हमसे घुटन की घाटियाँ कैसी लगी
    मगर नंगा रहा आकाश
    क्या बरसाता जानें हम
बहारें दूर से गुजरें
गुजरती ही चली जाएँ
मगर पतझर अमर भर
        साथ चलने को उतारू है


मगर पीड़ा अमर भर...


अटारी को धर से
किस तरह आवाज दे दें हम
महेंदिया चरण को
क्यों दूर का अंदाज दे दें हम,
    चले शमशान की देहरी
    वही है साथ की संज्ञा
    बरफ के एक बुत को
    आस्था की आँच क्यों दें हम
हमें अपने सभी बिसरें
बिसरते ही चले जाएँ
मगर सुधियाँ उमर भर
        साथ चलने को उतारू है


सभी शुख दूर से गुजरें
गुज़रते ही चले जाएँ
मगर पीड़ा उमर भर
        साथ चलने को उतारू है। ::


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7. सुधियाँ साथ निभाएँगी


सुधियाँ साथ निभाएँगी


    थकी अगर
   रुकी जाएँगी,
दूरी भर-भर आएँगी,
मुझको छोड़ न पाएँगी
तुम न भले ही साथ चलो
सुधियाँ साथ निभाएँगी
        थकी अगर......


    पीड़ा ओढ़े
    धूप हमारे साथ में
    और दुःखों के हाथ
    हमारे हाथ में
आकर्षण दिखलाएँगी
मृगतृष्णा बन जाएँगी
और सरकती जाएँगी
    तुम न भले ही साथ चलो
सुधियाँ साथ निभाएँगी
        थकी अगर.......


    मेरा उस
    सुर्खी के पार पड़ाव है
    राहों में अनजान
    चढ़ाव-ढलाव है
आहट कर-कर जाएँगी
प्रतिध्वनियों- सी आएँगी
मुझको सीध बताएँगी
        तुम न भले ही साथ चलो
सुधियाँ साथ निभाएँगी
        थकी अगर......


    पाप-पुण्य की
    परिभाषा से दूर हैं
    बंदी सुख की
    अभिलाषा से दूर हँ
सावन- सी बदराएँगी
रिमझिम कर बतियाएँगी
फ़ूलों-सी महकाएँगी
    तुम न भले साथ चलो
सुधियाँ साथ निभाएँगी
    थकी अगर
    रुक जाएँगी
दूरी भर-भर आएँगी
मुझको छोड़ न पाएँगी
तुम न भले ही साथ चलो
सुधियाँ साथ निभाएँगी ::

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